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मेरे मन में कई ख्याल उमड़े, फिर कुछ समझ आया कि वंदना मुझे कितना भी प्यार करती है… कितनी भी समर्पित है… लेकिन है तो यह एक नारी ही ना!! और नारी सुलभ लज्जा का प्रदर्शन तो स्वाभाविक ही था!
ख़ैर, यह विचार आते ही मैंने मुस्कुराते हुए वंदु को अपने बाहों में पूरी तरह से क़ैद कर लिया और एक झटके में उसे बिस्तर पे पलट कर अपने नीचे कर दिया. मैं अब भी मुस्कुरा रहा था और वंदु के चेहरे की तरफ़ एकटक देखे जा रहा था.
वंदु ने मुझे यूँ अपनी तरफ़ मुस्कुराते हुए देख कर सवालिया नज़रों से देखा मानो मेरी मुस्कुराहट की वजह पूछना चाह रही हो. मैंने भी बिना कुछ कहे उसकी आँखों में आँखें डाले हुए ही झुक कर उसके होंठों को चूम लिया. होंठों को चूमते हुए मैं धीरे-धीरे नीचे की तरफ़ बढ़ा और उसकी दोनों गोल उन्नत चूचियों को भी बारी-बारी से चूम कर चूचियों की घुंडियों को अपने होंठों में दब कर ज़ोर से चूस लिया.
‘अअइइइई…’ एक मीठे दर्द से भरी सिसकारी के साथ वंदु ने मेरे माथे के बालों को अपनी उंगलियों से खींच लिया मानो मुझे रोकना चाह रही हो.
पर मैं उस वक़्त रुकने की हालात में नहीं था… मैं क्या, शायद कोई भी होता तो नहीं रुक पाता! मैं अब चूचियों को छोड़ आगे बढ़ा और उसकी गहरी नाभि में अपनी जीभ की नोक से एक-दो बार गुदगुदाया. मेरी इस हरकत से वंदु ने अपनी कमर को एक बार ऊपर की तरफ़ उठा कर अपनी बेचैनी का एहसास कराया.
मैं वहीं नहीं रुका… धीरे-धीरे अपनी जीभ की नोक को उसी तरह उसकी नाभि से रगड़ते हुए नीचे की तरफ़ बढ़ने लगा. जैसे जैसे मेरी जीभ नीचे आ रही थी, वंदु के बदन की कंपकंपाहट बढ़ती जा रही थी. और अंततः मेरी जीभ उसकी छोटी सी गुलाबी पेंटी के ऊपर से उसकी चूत के ठीक मुहाने पर पहुँच गई. छोटे-छोटे फूलों के प्रिंट से सजी हुई उसकी बेहद ही मुलायम पेंटी अब तक उस हिस्से को पूरी तरह से भीग चुकी थी जहाँ से स्वर्ग के द्वार की शुरुआत होती है.
मैंने अपनी जीभ की नोक को उसकी पेंटी के ऊपर से महसूस हो रहे दरार में थोड़ा सा दबा दिया. ‘ओह्ह्ह्ह्ह… समीर… उफ़्फ़्फ़्फ…’ वंदु ने अपनी उंगलियों को जो अब भी मेरे बालों से खेल रही थीं, थोड़ा सा भींच लिया और मेरे बालों को लगभग खींचने लगी.
वंदु की चूत से आ रही एक तीव्र गंध मुझे और भी दीवाना बना रही थी और मेरे नवाब साहब को और भी ज़्यादा तड़पने को मजबूर कर रही थी. अब मैंने और देर करना उचित नहीं समझा और अपने हाथों से वंदु के पतली कमर को थाम कर अपने दाँतों से उस आख़िरी बचे परदे को पकड़ लिया… और हौले-हौले उसे खींच कर उतारने लगा. इस कोशिश का अहसास मेरी वंदु को भी हो चला था, तभी उसने अपनी कमर को थोड़ा उठा कर पेंटी को खींचने में मेरी मदद की. उसकी पैंटी धीरे-धीरे उसकी चिकनी मुलायम गुलाबी चूत को आज़ाद करती हुई सरकने लगी और इस जद्दोजहद में मेरे होंठ उसकी चूत की दरार को रगड़ते हुए नीचे की तरफ़ आने लगे.
पेंटी यूँ उतरने का अपना ही मजा है… यक़ीन ना हो तो उनसे पूछ लो जिन्होंने उतारी है या जिनकी यूँ उतरी है!!
अंततः मैंने उसकी चूत को पूरी तरह से आज़ाद कर दिया. कमरे की खिड़की से आ रही हल्की सी रोशनी में कामरस से सराबोर मेरी प्यारी वंदु की प्यारी मुलायम चूत बिल्कुल चमक सी रही थी. उस रात की बारिश में चमकती हुई बिजली की रोशनी में इस हसीन मुनिया के दर्शन हुए तो थे लेकिन उस तरह से नहीं जैसे अब हो रहे थे. बिल्कुल रोम विहीन चमचमाती हुई, सपाट पेट के ठीक अंतिम छोर पर बन पावरोटी की तरह फूली हुई गुलाबी चूत को देख कर मैं मंत्रमुग्ध सा हो गया था. दिल कर रहा था कि बस ऐसे ही निहारता रहूँ… उसकी कोमल पंखुड़ियों को अपनी उंगलियों से खोलकर अपनी पूरी जीभ उसकी गहराइयों में उतार कर सर रस चूस जाऊँ, उस रात की सारी कसर निकाल लूँ…
पर सच कहूँ तो इतना वक़्त था नहीं मेरे पास… पिछले आधे घंटे से उबाल रहे लावे को सम्भालना अब नामुमकिन सा था, मेरा लंड अब इसकी इजाज़त नहीं दे रहा था. मैंने झुक कर वंदु की दोनों जाँघों को चूमा और हौले से उसके दोनों पैरों को इतना फैला लिया ताकि मैं अपने आपको समा सकूँ.
अब मैं अपने घुटनों के बल आकर वंदु के दोनो जाँघों के बीच बैठ गया और अपने एक हाथ से अपने लंड को पकड़ और दूसरे हाथों से वंदु की कमर को पकड़ कर लंड के सुपारे को उसकी गीली चूत के मुँहाने पे धर दिया. ‘आह्ह्ह्ह्ह…’ वंदु ने अपनी कमर को थोड़ा ऊपर उठाते हुए एक गर्म सिसकारी भरी.
मैं उसकी मनोदशा समझ सकता था, आख़िर मेरा भी तो कमोवेश वैसा ही हाल था.
मैंने लंड के सुपारे को उसकी चिपचिपी चूत के मुँह के पे ऊपर से नीचे की तरफ़ रगड़ना शुरू किया. सुपारे के दबाव से चूत का मुँह थोड़ा सा खुल चुका था और मेरा सुपारा वंदु की चूत के रस से सन गया. इस रगड़ का एक असर यह हुआ कि वंदु के हाथ ख़ुद ब ख़ुद अपनी चूचियों पे चले गए और वो अपनी गर्दन को बेताबी में इधर-उधार फेरते हुए अपनी चूचियों को मसलने लगी और अपने दांतों से अपने होंठों को काटते हुए सिसकारियाँ भरने लगी.
यूँ तो मैंने कल रात ही उसकी चूत का सील भेदन किया था लेकिन मुझे पता था कि वो अब भी उतनी ही कसी हुई थी जितनी एक सील बंद चूत!!
अब बस… अब अगर थोड़ी देर भी मैं रुकता तो निश्चित ही मेरा लंड वंदु की चूत में घुसे बिना ही झड़ जाता, इसलिए मैंने अब धीरे-धीरे अपना बदन वंदु के ऊपर झुकाते हुए अपने लंड को हाथों से पकड़े हुए ही उसकी चूत के भीतर घुसेड़ना शुरू किया. चूत इतनी चिकनी हो चुकी थी कि सुपारे को अंदर घुसने में ज़्यादा तकलीफ़ नहीं हुई. अब मेरा सुपारा वंदु की चूत के मुँह में फँस चुका था… अब ज़रूरत थी तो बस एक झटके की और मेरे नवाब को उसकी मनपसंद जगह मिल जाती!
मैं इतने जोश में था कि मन में ऐसे ही ख्याल आ रहे थे कि एक ही झटके में पूरे लंड को चूत में गाड़ दूँ और क़िला फ़तह कर लूँ… लेकिन जैसा कि मैंने पहले भी बताया था कि मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी संतुष्टि के लिए चुदाई नहीं करता, जब तक साथी को मजा ना आए तब तक इस खेल का कोई मजा नहीं!
ख़ैर, लंड का अग्र भाग चूत में फँसा कर मैंने अब वंदु के उन हाथों को जो अब भी अपनी चूचियों का मर्दन करने में व्यस्त थे, धीरे से हटाते हुए अपने हाथों में उसकी चूचियों को थामा और वंदु की तरफ़ देखने लगा. वंदु ने बिन पानी तड़पती मछली की तरह तड़पते हुए अपनी आँखें खोलीं और मेरी आँखों में देखते हुए अपने मुँह से उत्तेजना से भरी आवाज़ें निकालते हुए अपनी कमर को उचकना शुरू किया मानो ख़ुद ही पूरा लंड अंदर ले लेना चाहती हो.
उसकी हालत देखते हुए अब मैंने झुक कर उसकी एक चूची को अपने होंठों में भरा और अपने लंड को बिल्कुल एक हल्की रफ़्तार लेकिन ज़ोर के साथ उसकी चूत के पूरे भीतर तक गाड़ दिया… बिल्कुल वैसे जैसे इंजेक्शन देते वक़्त सुई हमारे बदन में घुसती है.
‘आह्ह्ह्ह ह्ह्ह्ह्ह… स्स्स्स्मीर…’ वंदु ने बड़े ही मादक अन्दाज़ में सिसकारी भरते हुए अपनी चूत में घुसते हुए गर्म कड़क लंड को महसूस किया और मुझसे लिपट कर अपनी कमर के ऊपर के शरीर को उठा सा दिया. कमर तो उसकी मेरे शरीर के नीचे दबी हुई थी.
वंदु की यह अवस्था इस बात का प्रमाण दे रही थी कि उसकी चूत में लंड के जड़ तक पहुँचने से उसे असीम आनन्द की अनुभूति हुई है… उसने मुझे ज़ोर से जकड़ लिया, मैं हिल नहीं पा रहा था. लेकिन बिना हिले इस खेल को अंजाम तक पहुँचाना मुश्किल था. मैंने वंदु के चेहरे पे इधर-उधर चूमते हुए अपनी कमर को हरकत देनी शुरू की।
मेरा लंड अब भी पूरी तरह से जड़ तक उसकी चूत के अंदर फँसा हुआ था इस वजह से मेरे हिलने पर लंड बाहर- भीतर तो नहीं हो पा रहा था लेकिन उसकी चूत के अंदर शायद उसकी बच्चेदानी से टकरा कर उसे सहला ज़रूर रहा था.
‘उम्म्म्म्म… उम्म्ह… अहह… हय… याह… आऽऽह्ह्ह्ह्ह्ह… उम्मम्म…’ वंदु के मुँह से निकलने वाली ये सिसकारियाँ उसे मिल रहे आनन्द का सबूत दे रही थीं. लेकिन इतनी देर से चल रहे इस खेल को अब अपने मंज़िल तक पहुँचाना बहुत ज़रूरी था. वंदु का पता नहीं… लेकिन मैं उस स्थिति में नहीं थक इस खेल को और ज़्यादा लम्बा खींच सकूँ… इसलिए मैंने अब वंदु को अपनी पकड़ से छुड़ाया और उसे वापस लिटा दिया.
उसने अपनी आँखें खोल रखीं थीं लेकिन जोश और उन्माद से बोझिल होकर बार-बार बंद हो रही थीं. उसकी अधखुली आँखों में देखते हुए मैंने अपनी पोज़ीशन को एक बार फिर से ठीक किया और उसकी कमर को थाम कर अपने लंड को जड़ तक बाहर निकल कर धीरे-धीरे झटके देने शुरू किए.
फ़च… फ़च… फ़च… फ़च… की मधुर और मंद आवाज़ के साथ मैंने लंड को चूत के भीतर-बाहर करना शुरू कर दिया. मेरी हालात तो ऐसी थी कि राजधानी की रफ़्तार से वंदु की चुदाई करके उसकी चूत और अपने लंड का पानी निकाल देना ही सही था, लेकिन फिर भी मैं संयम बरतते हुए हल्के धक्कों से ही उसकी मख़मली चूत का मर्दन करता रहा. यह हिंदी चुदाई की कहानी आप अन्तर्वासना सेक्स स्टोरीज डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं!
शायद मैं उस वक़्त का इंतज़ार कर रहा था जब वंदु उस हालात में पहुँच जाए जहाँ मेरे प्रलयंकरी झटकों को हँसते हँसते सह सके… वंदु इन हल्के झटकों का मज़ा अपनी गर्दन को इधर-उधर फेर कर ले रही थी और बीच-बीच में अपने मुँह से हल्की-हल्की सिसकारियाँ भर रही थी. मैंने अपने लंड की रफ़्तार अब थोड़ी सी बढ़ा दी और झटकों का प्रहार भी तेज़ किया. बीच-बीच में झुक कर उसकी चूचियों को भी चूम लेता.
तभी अचानक से वंदु के शरीर में कंपकंपाहट होने लगी और उसकी चूत से काम रस का एक ग़ुबार फूट पड़ा… लगा जैसे उसकी चूत स्खलित हो गई हो… लेकिन यदि ऐसा होता तो वंदु का शरीर पूरी तरह अकड़ता और स्खलन के बाद वो थोड़ी शिथिल भी पड़ जाती, पर ऐसा हुआ नहीं… वो और भी मज़े से अपनी कमर को हिलाने लगी और अपनी दोनो हथेलियों में बिस्तर की चादर को थाम कर अपने आनन्द का अहसास करवाने लगी.
अब समझना मुश्किल नहीं था कि यह वंदना के उस असीम आनन्द का प्रमाण है जहाँ वो पूरी तरह से मसले जाने के लिए तैयार हो चुकी थी और अब चाहे जितने भी तेज़ और ज़ोरदार प्रहार किए जाएँ वो मज़े से सह लेगी.
बस फिर क्या था, मैंने अपने घुटनों को थोड़ा सही किया और वंदु की दोनों जाँघों को सहलाते हुए उसकी टांगों को उठा कर अपने कंधों पे रख लिया और फिर शुरू हुआ मेरे लंड का प्रलयंकारी प्रहार!
‘आऽऽह्ह… आह्ह ह्ह… उम्म्म… ओह्ह्ह्ह… स्स्स्स्मीर…’ वंदु की तेज़ चलती सांसें और सिसकारियों का दौर शुरू हुआ. फ़च.. फ़च.. फ़च… की आवाज़ ने वंदु की सिसकारियों का पूरा साथ दिया और सुर से सुर मिलाकर कमरे के माहौल को बिल्कुल वासनामयी बना दिया.
‘ऊह्ह्ह ह्ह… मेरी वंदु… उम्म्म्म… उम्मम…’ मैं भी अपनी उत्तेजना को दर्शाते हुए वंदु को इधर-उधर चूमते हुए अपने लंड को ज़बरदस्त झटकों के साथ उसकी चूत में पेलता रहा. ‘हाँ… स्स्स्स्म्म्मीर… ऐसे ही समीर… ऐसे ही… ओह्ह्ह्ह…’ वंदु भी अपनी लड़खड़ाती आवाज़ में मुझे पुचकारती हुई मेरे हर धक्के पे अपनी ख़ुशी ज़ाहिर कर रही थी.
जोश से भरे धकापेल चुदाई का खेल अब अपने चरम पे था… हमारे झटके इतने बलशाली हो चुके थे कि पलंग भी अपनी जगह से खिसकने लगा था. मैंने अब वंदु की दोनो चूचियों को एक बार फिर से अपने हाथों में थाम लिया और इस बार सच में राजधानी की रफ़्तार से चोदने लगा.
‘आहा ह्ह्ह्ह… आ… आह्ह्ह… आह्ह्हह… हाँ मेरे ररर्राऽऽजा… और तेज़… और तेज़… और तेज़… उम्म्म्म…’ वंदु अब अपने चरम पे पहुँच चुकी थी और शायद कुछ देर में भी स्खलित होने वाली थी. मेरा हाल भी लगभग वैसा ही था… हम दोनों इतनी देर से अपने अंदर उबल रहे लावे को संभाल रहे थे लेकिन अब शायद वो फूटने वाला था.
‘हाँ… मेरी वंदु… मेरी जान… उफ़्फ़्फ़्फ़… आह्ह्ह… और लो… और लो… हम्म!’ मैं भी पूरी ताक़त से वंदु की चुदाई में लगा हुआ था. दोनो पसीने से लथ-पथ हो चुके थे लेकिन कोई भी हारने को तैयार नहीं था. फ़च… फ़च… फ़च… फ़च… ओह्ह्ह… आह्ह्ह्ह्ह… उम्म्म… हम्म्म… सारे कमरे में मानो भूचाल सा आ गया था…
‘अअअइइ इइइइ… स्स्स्स्स्समीर… स्स्स्स्स्मीर… सस्समीर…उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़’ एक आनन्द भरी चीख़ और कुछ सिसकरियों के साथ वंदु का बदन पूरी तरह से अकड़ गया और उसने अपना रस छोड़ दिया… ‘स्स्स्समीर… स्स्स्समीर… उम्म्म्म’ धीरे-धीरे मेरा नाम लेते हुए वंदु ने अपने शरीर को ढीला छोड़ दिया।
मैं अब भी उसी रफ़्तार से अपने लंड को पेल रहा था…वक़्त मेरा भी नज़दीक था. अमूमन इतनी जल्दी मैं झड़ता नहीं… लेकिन वंदु ने चुदाई से पहले मेरे लंड को इतना तड़पाया और सहलाया था मैं भी झड़ने के कगार पे आ चुका था ‘ओह्ह्ह… वंदु… उफ़्फ़्फ़्फ… मैं भी आयाऽऽऽऽ’ और दो-तीन तेज़ झटकों के साथ मैंने वंदु की चूत में अपने लंड का उबलता हुआ लावा उगल दिया.
कमरे में आया भूचाल एकदम से शांत हो गया और उस ख़ामोशी में बस हम दोनों की तेज़-तेज़ चल रही साँसों का शोर गूँजने लगा. हम दोनों उसी तरह एक दूसरे से लिपट कर अपनी आँखें बंद किए हुए अपनी-अपनी साँसों को सम्भालने का प्रयत्न करने लगे.
साँसों की रफ़्तार थोड़ी कम हुई तो मैं वंदु के ऊपर से सरक कर उससे लिपटे हुए ही करवट के बल लेट गया. मज़े की बात ये थी कि लंड महाराज अब भी अपनी मुनिया में ही फँसे हुए थे और चूत के रस से सराबोर हो कर अपनी तृष्णा तृप्त कर रहे थे.
इस थका देने वाली चुदाई का असर यह हुआ कि हम दोनों एक दूसरे को अपनी बाहों में समेटे हुए नींद की आग़ोश में खो गए.
क़रीब एक घंटे बाद हमारी नींद खुली… हम अब भी वैसे ही लिपटे हुए थे, वंदु की चूचियाँ मेरे सीने में दबी हुई थीं, मेरा लंड सिकुड़ कर भोली सी सूरत बनाकर चूत के बाहर उसके होंठों से सटा हुआ था मानो उसकी पप्पी ले रहा हो.
हम दोनों की आँखें मिलीं और मैं वंदु को देख कर मुस्कुरा दिया. वंदु मेरी मुस्कुराहट देख कर शर्मा गई और मेरे सीने पे अपने हाथों से एक हल्का सा मुक्का मारा और फिर शर्माते हुए मेरे सीने पे अपने नाज़ुक होंठों से चूमते हुए अपना सर छुपा लिया. मैंने एक संतुष्टि भरी लम्बी साँस ली और वंदु को अपने सीने में ज़ोर से भींच लिया.
‘ठक… ठक… ठक!’ अचानक से दरवाज़े पे दस्तक हुई… और हम दोनो चौंक कर एक दूसरे को देखने लगे.
अमूमन इस वक़्त किसी के होने का कोई अंदेशा तो नहीं था…फिर ये कौन हो सकता है? कई सवाल एक साथ मन में कौंध गए !!
दोस्तो, अभी इस कहानी का एक आख़िरी पड़ाव बाक़ी है. उम्मीद है आप सबको इस कहानी को पढ़ने के बाद उसका भी बेसब्री से इंतज़ार होगा, जल्दी ही उस आख़िरी पड़ाव को भी आपके सामने पेश करूँगा फिर किसी और दास्तान की तरफ़ बढ़ेंगे. आप सबके प्रेम और स्नेह के लिए शुक्रिया!! [email protected]
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