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तृष्णा- कहाँ जा रहे हो? मैं- नहीं जानता। ज्योति- किस लिए? मैं- नहीं जानता। तृष्णा- कहाँ रहोगे वहाँ? मैं- नहीं जानता।
तृष्णा ज्योति से- मैंने कहा था न ! पक्का वही केस है। फिर मेरी तरफ देखते हुए- तुम किसी बड़ी कंपनी के मालिक के बेटे हो क्या? ‘क्या?’ चिढ़ते हुए मैंने कहा। तृष्णा- नहीं ‘जब वी मेट’ में हीरो की यही तो कहानी थी।
मैं- कभी फिल्मों की दुनिया से बाहर भी आओ। यहाँ किसी की जिंदगी स्क्रिप्ट के हिसाब से नहीं चलती। निशा- क्या डायलॉग बोलते हो यार। हैंडसम हो और आवाज़ भी जबरदस्त है, फिल्मों में कोशिश क्यूँ नहीं करते। मैं- मैं अपने आप से भाग रहा हूँ और ये रास्ते किस मंजिल पे मुझे ले जायेंगे मुझे नहीं पता.. निशा- मैं तो बस दरवाज़ा खटखटाने को कह रही हूँ। क्या पता तुम्हारी मंजिल भी वहीं हो.. जहाँ हम जा रहे हैं।
मुझमें अभी कुछ भी फैसला लेने की हिम्मत नहीं थी। मैं तो बस अपने दर्द से भागने की कोशिश कर रहा था।
तभी पैंट्री वाला आया और सस्ती व्हिस्की की एक बोतल और कुछ स्नैक्स दे गया। बाकी तीनों मेरी शकल ही देखती जा रही थीं।
मैंने निशा को देखा और पूछा- गिलास है? निशा ने बिना कुछ कहे चार गिलास निकाले और मेरे बगल में रख दिया उसने।
मैं- चार गिलास क्यूँ? निशा- दारू और दर्द जितना बांटोगे उतना ही खुश रहोगे। मैं- मैं तो अपने दर्द को भूलने के लिए पी रहा हूँ। तुम सब क्यूँ पी रही हो? निशा- मुस्कुराते हुए चेहरे ही सबसे ज्यादा ग़मों को समेटे होते हैं। दो पैग अन्दर जाने दे.. फिर जान जाओगे हमारे राज़।
मैंने बोतल उसके हाथों में दे दी और कहा- लो मेरे लिए भी बना देना। मैंने गिलास उठाया और खिड़की से बाहर देखने लगा। बाहर खेतों की हरियाली.. पहाड़ों की घाटियाँ और भी न जाने कितने ही जन्नत सरीखे रास्ते से हो कर हमारी ट्रेन गुज़र रही थी। पर आज मुझे ये खूबसूरत नज़ारे भी काट रहे थे जैसे। मैं अपने ही ख्यालों में खोया था कि तभी तृष्णा की आवाज़ से मैं अपने ख्यालों से बाहर आया।
तृष्णा- चलो अब बताओ अपने बारे में.. अब हम दोस्त हैं और दोस्तों से कुछ भी छुपाना नहीं चाहिए। मैं- मुझसे नहीं कहा जाएगा.. और फिर जैसे मेरी आँखें डबडबाने लगीं।
निशा- ठीक है.. पहले हम बताते हैं अपने बारे में.. शायद तुममें थोड़ी हिम्मत आ जाए। निशा ने अपनी कहानी बतानी शुरू की.. वो शराब के असर से थोड़ा रुक-रुक कर कह रही थी।
‘मैं कोलकाता में ही पैदा हुई थी। मेरा बचपन अब तक की मेरी सबसे हसीन यादों में से एक है। मैं, मम्मी-पापा और दादा- दादी हम सब एक खुशहाल परिवार की तरह रहते थे। मेरे पापा का कोलकाता में ही गारमेंट्स का बिज़नेस था। हमारे पास पैसों की कभी भी कमी नहीं थी। बचपन में दादी अक्सर मुझे परियों की कहानियाँ सुनाया करती थीं और मैं हर बार उन परियों की कहानी में खुद को ही देखा करती थी.. पर कहते हैं न.. जीवन में अगर अच्छे दिन आते हैं.. तो कुछ बुरे दिन भी होते हैं। जब मैं आठ साल की थी.. तब मेरे पापा को उनके बिज़नेस में जबरदस्त घाटा लगा। वे अपने बिज़नेस को जितना बचाने की कोशिश करते.. उतना ही वो कर्जे में डूबते चले गए।उसके लगभग एक साल बाद दादा और दादी का भी देहाँत हो गया। मुझे आज भी याद है… वो दिन जब हर रोज़ कोई ना कोई लेनदार हमारे दरवाज़े पर खड़ा रहता। पापा रात को नशे में धुत घर में आते और मुझ पर और माँ पर अपनी नाकामयाबी का गुस्सा निकालते। एक दिन मैं अपने स्कूल से आई तो मेरे घर पर भीड़ लगी थी। मम्मी उसी कॉलोनी के अंकल के साथ भाग गई थीं और पापा मेरी मम्मी की चिट्ठी हाथ में लिए ज़मीन पर पड़े थे। मैंने पास जाकर देखा तो उनकी साँसें नहीं चल रही थीं। मैं एक पल में ही अनाथ हो चुकी थी। पापा के बीमा से जो पैसे मिले.. उनसे मैंने कर्जे चुका दिए और बाकी पैसे अपनी पढ़ाई के लिए रख लिए। दस साल की उम्र से मैंने खुद को संभालना सीख लिया। पिछले महीने मैंने एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी और वो बॉम्बे में एक डायरेक्टर को पसंद आ गई.. सो अब मैं मुंबई जा रही हूँ.. एक कामयाब डायरेक्टर बनने..’
फिर तृष्णा ने खुद के बारे में बताना शुरू किया। अब उसकी आवाज़ में कुछ ज्यादा ही भारीपन था।
‘एहें एहें..’ उसने अपना गला ठीक करते हुए बताना शुरू किया- कहाँ से शुरू करूँ.. समझ नहीं आ रहा मुझे.. वैसे मुझे तो याद भी नहीं कि मेरे माँ-बाप कौन हैं। उन्होंने बचपन में ही सिलीगुड़ी के एक गाँव में बने देवी मंदिर में मुझे दान कर दिया था, शायद बेटी बोझ थी उनके लिए.. मुझे वहीं के पुजारी परिवार ने पाला। जब मैं शायद तीन साल की थी.. तब उन्होंने पूरे गाँव में एलान करवा दिया कि मैं किसी देवी का अवतार हूँ और इन अफवाहों ने मंदिर की कमाई बहुत बढ़ा दी। पांच साल की उम्र में मैं हर रोज़ छह घंटे रामायण पाठ करती और उसके बाद कीर्तन में हारमोनियम, तबले बजाने वालों के साथ थोड़ा रियाज़ भी करती थी। बीस साल की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते मैं शास्त्रीय संगीत में माहिर हो चुकी थी। अब तो मैंने टीवी पर आने वाले गाने भी गुनगुनाने शुरू कर दिए थे। एक बार बाबा (पुजारी जी) ने मुझे टीवी के गाने गाते सुन लिया और उस दिन उन्होंने मुझे बहुत मारा। मैं गुस्से में थी और घर में जो पैसे थे वो लिए और कोलकाता आ गई। संयोग से मैं निशा के घर किराए पर कमरा लेने गई और तभी हमारी मुलाक़ात भी हुई। उन संघर्ष के दिनों में मुझे मेरा पहला प्यार मिला। वो रिकॉर्डिंग स्टूडियो का मालिक था और उभरते हुए गायकों को मौक़ा भी देता था। मैं अक्सर गाने के लिए वहाँ जाया करती थी। एक दिन उसने मुझे प्रपोज किया और फिर हम अक्सर साथ वक़्त बिताने लगे। कुछ साल बीत जाने के बाद एक दिन उसने कहा कि अब तुममें वो बात नहीं रही और हमारे रिश्ते को ख़त्म कर दिया। मैंने उसे मनाने की बहुत कोशिश की… पर शायद उसे मेरे जिस्म से प्यार था। जब निशा ने मुंबई जाने की बात की तो मैं भी साथ चल पड़ी। आखिर अब मेरे लिए वहाँ कुछ बचा भी तो नहीं था और शायद मुंबई में ही मेरी किस्मत लिखी हो।’
अब ज्योति ने अपनी कहानी शुरू की।
‘मेरी जिंदगी का सफ़र इतना भी आसान नहीं था। बंगाल के बेहद गरीब परिवार में मेरा जन्म हुआ था। मुझे तो ठीक से याद भी नहीं पर शायद चार या पांच साल की रही होऊँगी.. तभी मेरे माँ-बाप ने पैसों की खातिर मुझे एक दलाल को बेच दिया। उस दलाल ने मेरे माँ-बाप को ये भरोसा दिलाया था कि मुझे पढ़ा कर वो मेरी शादी भी करवाएगा। फिर वो मुझे कोलकाता लेता आया और मैं यहाँ के एक सभ्य परिवार में घरेलू काम करने लगी। उन परिवार वालों की गालियाँ.. सर पर छत और दो वक़्त का खाना ही मेरी तनख्वाह थी। जब भी वो परिवार कोई फिल्म देखता मैं भी किसी कोने में बैठ उसे देखती और हमेशा यही सोचती कि उसी फिल्म की हिरोइन की तरह मेरी भी जिंदगी होती। एक आज़ाद परिंदे की तरह अपनी जिंदगी बिताना। कुछ इसी तरह अपना जीवन बिताते हुए.. मैं अब लगभग पंद्रह साल की हो चुकी थी। एक दिन मैं रोज़ की तरह रसोई में काम कर रही थी तो मेरे घर का 52 साल का मालिक आया और मुझे यहाँ-वहाँ छूने लगा। मैंने उसे रोकने की कोशिश की तो उसने मुझे मारना शुरू कर दिया। फिर उसने मेरे दलाल को बुलाया और मुझे उसके हवाले कर दिया। वो दलाल मुझे एक झोपड़ीनुमा जगह ले गया और वहाँ उसने और उसके कुछ दोस्तों ने मेरा दैहिक शोषण किया। जब मैं मरने जैसी स्थिति में हो गई तो उसने कोलकाता की बदनाम गलियों में मेरा सौदा कर दिया। अब हर रात मैं धीरे-धीरे मर रही थी। एक दिन पुलिस की रेड पड़ी और वहाँ से मुझे एक एनजीओ के हवाले कर दिया गया। वहाँ मैंने पढ़ना सीखा और मुझे जीने की एक उम्मीद दिखी। एक दिन निशा हमारे यहाँ आई और हमारा ऑडिशन लेने लगी। उसे अपनी फिल्म के लिए एक कलाकार चाहिए था। (थोड़ी देर रुक के) आप ठीक समझे.. मैं ही निशा की डॉक्यूमेंट्री की हिरोइन हूँ और जब निशा मुंबई जा रही थी तो मैं भी उसके साथ चल दी। मुझे तो बॉलीवुड का ‘सुपरस्टार’ बनना है।’
फिर मेरी ओर देखते हुए निशा बोली- अब तो कुछ बताओ अपने बारे में..
उन लड़कियों की हिम्मत देख मुझमें भी थोड़ी हिम्मत आ गई थी। मुझे लग रहा था कि शायद अब मैं भी अपनी तन्हाई से लड़ लूँ। मैंने उनसे अपनी कहानी बताई और कहा- मैं नहीं जानता.. कि मुझे अपनी जिंदगी में क्या बनना है.. मैं तो बस वहाँ जाऊँगा और सबसे पहले कहीं भी कोई नौकरी करूँगा। बस इतना ही सोचा है।
तृष्णा- काश दुनिया के हर मर्द के प्यार में तुम्हारे जैसा ही समर्पण होता। मैं- अगर हर लड़की तृषा जैसे ही सोचती तो शायद कोई भी मर्द कभी किसी से प्यार करता ही नहीं।
निशा- तुम्हें नौकरी ही करनी है न? हमारे पास तुम्हारे लिए एक नौकरी है। अगर तुम चाहो तो। मैं- कैसी नौकरी?
निशा- हम तीनों को अपना मुकाम बॉलीवुड में हासिल करना है और यहाँ पर सफलता के लिए दिखावा बहुत ज़रूरी है और इस दिखावे के लिए हमें एक पर्सनल असिस्टेंट चाहिए। अभी तो तुम्हें हम बस रहने की जगह, खाना और कुछ खर्चे ही दे पायेंगे.. पर जैसे हमारी कमाई बढ़ेगी.. हम तुम्हारी तनख्वाह भी बढ़ा देंगे।
अब तीनों मेरे जवाब को मेरी ओर देखने लगी, मैंने ‘हाँ’ में सर हिलाया।
फिर सबने अपने गिलास टकराए और ने मेरे हाथ को पकड़ मेरे गिलास को भी टकराते हुए कहा- ये जाम हमारी आने वाली कामयाबी और पहचान के नाम।
कहानी पर आप सभी के विचार आमंत्रित हैं। कहानी जारी है। [email protected]
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