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कम्मो एक बेहद ही साधारण सा जीवन बिता रही थी। दिन भर सिन्हा जी के घर का सारा काम निबटाती और रात को अपने परिवार के साथ उनके काम में हाथ बटाती।
यही कोई 22 के आस पास की उम्र होगी उसकी, भरा हुआ जिस्म अब रास्ते पे लोगों की नज़र में चुभने लगा था पर उस पर अपने परिवार की जिम्मेदारी थी, जब 6 साल पहले उसके माँ बाप एक हादसे में चल बसे थे तब से उसने ही अपने चार छोटे भाई बहनों को संभाला था।
हर रोज़ की तरह आज का दिन भी था, आज सिन्हा जी (मेरे परम मित्र) की छुट्टी थी और उनकी बीवी अपने बच्चो के साथ मायके गई हुई थी।
हल्के नारंगी रंग की साड़ी में कम्मो से नज़र हटा पाना किसी के लिए भी संभव नहीं था। यह सिन्हा जी की पत्नी की साड़ी थी जिसे एक महीने पहले उन्होंने कम्मो को दिया था।
मौसम आज उमस भरा था, जिस वजह से कम्मो पसीने से तर-बतर हुए जा रही थी। पसीने की वजह से कम्मो की आँखों की काजल बिखर रही थी पर कम्मो तो बस अपने काम में ही मगन थी।
सिन्हा जी अपनी आराम कुर्सी पे बैठे बैठे कम्मो की सुन्दरता निहार रहे थे। उसके बिखरे हुए काजल अब पसीने के साथ बह चले थे, जैसे शुरुआत होती है किसी नदी की धारा की.. उसके बेहद नाजुक गालों से होते हुए यह काजल उसकी गर्दन पर आ पहुँचा, जैसे किसी नदी ने अपने पहले गतव्य को पा लिया हो मानो।
अब ये बूंदें फिर अपना सफ़र शुरू करती हैं पर जिस प्रकार किसी पर्वत के राह में आने पे नदी अपनी धारा बदल लेती है वैसे ही ये बूंदें भी अपने मार्ग से हट जाती है।
जैसे ही ये बूंदें उज्ज्वल पर्वतों की घाटी में प्रवेश करती हैं तो सिन्हा जी भी अपनी गर्दन ऊँची कर उस बूंद के आखिरी दर्शन को व्याकुल हुए जाते हैं। पर उनकी व्याकुलता ज्यादा समय तक नहीं रहती है, पसीने ने ब्लाऊज के कपड़े को धीरे धीरे लगभग पारदर्शी बना दिया था।
सिन्हा जी को तो जैसे मन मांगी मुराद ही मिल गई थी। उसके नाज़ुक उरोज अब नुमाया हो चुके थे।
काम की वजह से वैसे भी कम्मो ने अपनी साड़ी लगभग अपनी जाँघों तक की ही हुई थी।
सिन्हा जी की व्याकुलता बढ़ती ही जा रही थी, उसके कूल्हों का यों हिलना सिन्हा जी के लिंग में एक तूफ़ान सा एहसास करा रहा था। बार बार वो अपने लिंग को अपने हाथों से मसल के शांत करने की कोशिश कर रहे थे पर यह तो और भी भड़कता ही जा रहा था।
अचानक कम्मो के नज़र सिन्हा जी जा मिली और तब उसे अपनी गलती का एहसास हुआ, अपने कपड़े व्यवस्थित कर अन्दर कमरे में काम करने चली गई। पर उसकी धड़कनें भी बढ़ गई थी।
यूँ तो लोगों की चुभती हुई नज़र का एहसास था उसे… पर आज उसके पारदर्शी आवरण ने उसे बेबस कर दिया था। पुरुष के स्पर्श से मिलने वाले सुख का अंदाजा नहीं था उसे… पर भीड़ में लोगों का उसे मसलना और उससे होने वाली चुभन का ज्ञान था उसे।
आज तो किसी भीड़ ने नहीं मसला था उसे… फिर आज कैसे एक नज़र भर देख लेने से ही उस चुभन का एहसास जागा था। उसका शरीर मनो उसके वश से बाहर होता जा रहा था। तन के कपड़े अब उसे काँटों की तरह चुभ रहे थे।
सिन्हा जी के लिए खुद को संभालना मुश्किल होता जा रहा था। जब से बच्चे बड़े हए थे, तब से उन्होंने शायद ही कभी अपनी पत्नी को भी ऐसे देखा हो।
वो उठ पड़े अपनी कुर्सी से और चल पड़े बेडरूम की ओर जहाँ कम्मो पोंछा लगा रही थी।
इधर कम्मो के मन में भी विचारों का सैलाब सा आ चुका था, उसने हमेशा ही एक ख्वाहिश की थी कि अगर कोई उसके सपनों का राजा हो सकता है तो वो सिन्हा जी जैसा ही हो सकता है। आखिर कितना प्यार करते हैं वो अपने परिवार से, इतने दिनों से काम कर रही थी कम्मो पर आज तक कभी भी गलत नज़रों से नहीं देखा था उन्होंने कम्मो को।
लेकिन आज की घटना ने कम्मो के मन को हिला दिया था, उसके जिस्म में आग सी लग चुकी थी, पूरा शरीर कांप रहा था उसका!
सिन्हा जी अब कमरे के दरवाजे पे दस्तक दे चुके थे, कम्मो सर झुकाए पोंछा लगा रही थी पर उसे भी एहसास हो चुका था सिन्हा जी के वहाँ आने का।
अपने कांपते हाथों को सिन्हा जी ने कम्मो के कंधे पर रख दिया।
कम्मो की नज़रें अब भी झुकी हुई थी, कम्मो की बेचैनी अपने चरम पे थी, एक अजीब सा सन्नाटा था वहाँ पे, सिन्हा जी कांपते हाथ उसके पीठ पर फिसलने शुरू हो गए।
उस स्पर्श में कठोरता इतनी थी कि कम्मो की पीठ पर उनके उँगलियों के निशान उभरने शुरू हो गए थे। कम्मो दबी हुई सिसकारियाँ अब सिन्हा जी के कानों तक पहुँच चुकी थी, सिन्हा जी ने अब अपने दोनों हाथों को उसकी पीठ पे रगड़ते हुए उसकी कमर तक ले गए और पीछे से ही साड़ी के अन्दर घुसा कर उसके कूल्हों को अपनी मुठ्ठियों में भींच लिया।
उसके कूल्हों को मसलते हुए अपनी कन्नी ऊँगली से उसके मॉल द्वार और बड़ी उंगली से उसके योनि छिद्र को छेड़ने लग गए।
सिन्हा जी की इस क्रिया ने कम्मो के जिस्म में आग लगा दी, अब भूल गई सब लोक लाज वो, अपनी हर भावना, सामाजिक मान-मर्यादा की परवाह किये बिना उठकर सिन्हा जी के गले लग गई।
दोनों के होंठ जा मिलें और डूब गए दोनों एक दूसरे में।
एक तरफ सिन्हा जी के प्रेम में विगत वर्षों की प्यास थी तो दूसरी तरफ कम्मो में समर्पण था, प्रेम था, अपनापन था।
सिन्हा जी का बांया हाथ अब भी उन कूल्हों को मसल रहा था, बीच वाली ऊँगली रह रह के योनि में प्रवेश का प्रयास कर रही थी।
अब दाहिने हाथ से उन्होंने कम्मो के आवरण को उसके जिस्म से अलग करना शुरू कर दिया था। कम्मो के कामुक शरीर को सम्पूर्ण निर्वस्त्र कर दिया था उन्होंने।
आज इतने वर्षों बाद सिन्हा जी खुद को युवा महसूस कर रहे थे… आज तो कम्मो के कामुक यौवन का पूरा रस निचोड़ लेना चाहते थे वो।
सिन्हा जी अब अपने वस्त्र भी उतार चुके थे। कम्मो अब तक मूक दर्शक की भान्ति खड़ी थी, उसके लिए तो हर एहसास नया सा ही था।
सिन्हा जी ने अब उसके जिस्म के हर अंग से खेलना शुरू कर दिया था। परिपक्वता किसी जिस्म से खेलने के हर पैंतरे सिखा ही देती है, उसके पूरे जिस्म को चूमते हुए उसकी योनि तक पहुँच गए, उँगलियाँ अब कम्मो के चुचूकों को कुरेद रही थी।
सिन्हा जी यूँ ही जमीन पर बैठ गए कम्मो की एक टांग को अपने कंधे पे रखा और अपने मुख को योनि के अमृत द्वार पर टिका दिया।
कम्मो ने वासना के वशीभूत अपनी योनि को सिन्हा जी मुख पर रगड़ना शुरू कर दिया। इस अति उत्तेजना ने कम्मो का काम तमाम कर दिया।
सिन्हा जी तो माहिर खिलाड़ी थे, बड़ी सहूलियत के साथ कम्मो को गोद में उठा बिस्तर पे गिरा दिया उन्होंने। मखमली बिस्तर पे अंगड़ाई लेता उसका मादक बदन अब सिन्हा जी को मानो चुनौती दे रहा था। अब वो कम्मो के ऊपर आ चुके थे, अपने हाथो से कम्मो के उरोजों को मसलना शुरू कर दिया और अपने होठों से कम्मों के होंठ मिला दिए थे उन्होंने।
कम्मो के नाखून सिन्हा जी के जिस्म पे गड़ कर निशान बना रहे थे।
सिन्हा जी ने कम्मो की कलाइयाँ पकड़ उसके नाज़ुक हाथों में अपना कठोर लिंग दे दिया।
कम्मो की नासमझ हथेलियों का स्पर्श भी सिन्हा जी को आवेग दिलाने को काफी था।
अब बारी थी उस कामुक द्वार को भेदने की।
सिन्हा जी ने कम्मो के टांगों को अपने कंधों पे रख लिया, अब कम्मो की योनि को सिन्हा जी का चूम रहा था। अब तो बस बारी थी तो एक दूसरे में समा जाने की।
आँखों ही आँखों में सिन्हा जी ने कम्मो से सहमति ली और एक धक्के के साथ अपने लिंग को उस योनि द्वार में प्रवेश करा दिया। कम्मो की सुर्ख लाल आँखों ने सिन्हा जी को उसके दर्द का एहसास दिला दिया था।
अब सिन्हा जी ने उसे चूमना शुरु कर दिया।
जैसे जैसे कम्मो की दर्दपूरित सिसकारियाँ तेज़ होती गई, सिन्हा जी ने अपने धक्कों की रफ़्तार बढ़ानी शुरू कर दी।
थोड़ी देर में सिन्हा जी ने आसन बदला और उसके बालों को पकड़ पीछे से चोदना शुरु कर दिया।
कम्मो की सिसकारियाँ अब गुर्राहट में बदलने लग गई थी।
एक दबी हुयी चीख के साथ सिन्हा जी अपना लावा कम्मो के अन्दर निकालते चले गए। अब कम्मो भी निढाल हो बिस्तर पे गिर पड़ी थी।
सिन्हा जी ने भी अपनी बरसों की प्यास शांत की थी, आज उन्होंने अपने जीवन का सुख पाया था।
आज कम्मो ने सब कुछ खो के भी अपने जीवित होने के एहसास को पा लिया था।
जब वो शाम को अपने घर गई तो पीछे सिन्हा जी के लिए चिट्ठी छोड़ गई। प्रिय, मैंने आज अपने प्रेम को पा लिया। मुझे पता है दुनिया में सब हमारे रिश्ते को नाजायज़ ही कहेंगे और न जाने कितनी बदनामी हो आपकी। कहीं लोग यह न समझ बैठें कि मैंने अपने फायदे के लिए आपके प्रेम का इस्तेमाल किया है इसलिए मैं अब आपके घर कभी नहीं आऊँगी। केवल आपकी कम्मो
कम्मो तो चली गई पर सिन्हा जी को तो बाहर के खाने की आदत लग गई थी।
हम दोनों ने वहाँ बड़े शिकार (अपनी उम्र की ही) किये (कई बार खुद भी शिकार हुए) पर उनके साथ मज़े में दिन बीते।
आज मैं दिल्ली स्थानांतरित हो गया हूँ, कभी कभार ही सिन्हा जी से बात हो पाती है। पर आज भी हम वो दिन नहीं भूल पाए हैं।
कहानी कैसी लगी बताइयेगा ज़रूर…
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