गुसलखाने का बंद दरवाज़ा खोला-1

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Bathroom Ka Band Darwaja Khola-1 प्रिय अन्तर्वासना के पाठकों आप सब को टी पी एल का हार्दिक अभिनन्दन!

आशा करती हूँ कि आप सब अन्तर्वासना की रोचक रचनाएँ पढ़ कर अपनी वासना को जागृत एवं उसमे लगातार वृद्धि कर रहे होंगे!

अन्तर्वासना की रचनाओं के इस विशाल सागर रूपी संग्रह की वृद्धि के लिए मैं एक रचना और ले कर आई हूँ!

यह रचना आप ही की तरह एक पाठक की है जिसने मुझे इसे संपादित करके अन्तर्वासना पर प्रकाशित करने के लिए अग्रसर करने का अनुरोध किया है।

इस रचना को पढ़ने के बाद मुझे अनुभूति हुई कि यह एक सत्य घटना का ही वर्णन है इसलिए मैंने इस मूल रचना के स्वरूप को बिना बदले इसमें सिर्फ भाषा और व्याकरण त्रुटियों में सुधार करके आप सब के मनोरंजन के लिए लाई हूँ!

यह रचना रवि के शब्दों में ही प्रस्तुत करी गई है:


अन्तर्वासना के सभी पाठकों को मेरा सादर प्रणाम!

मेरा नाम रवि है, मैं पिछले दो वर्षों से अपने भईया और भाभी के साथ बैंगलोर में रह रहा हूँ।

मेरी आयु चौबीस वर्ष है, आई टी इंजिनियर हूँ तथा बैंगलोर की एक आई टी कंपनी में कार्यरत हूँ।

मेरा कद छह फुट एक इंच है और नियमत व्यायाम और संतुलित भोजन के कारण मैं एक हट्टे-कट्टे एवं गठीले शरीर का मालिक हूँ।

दो वर्ष पहले जब मैंने अपनी इंजीनियरिंग पूरी करी थी तब कैंपस इंटरव्यू में ही बैंगलोर की इस कंपनी द्वारा काम के लिए चयनित हो गया था्।

क्योंकि मेरे भईया और भाभी बैंगलोर में ही कार्य करते हैं इसलिए उन्होंने मुझे अपने साथ सातवीं मंजिल पर उनके दो बैडरूम वाले फ्लैट में ही रहने के लिए बाध्य कर दिया।

दो वर्ष पूर्व जब मैं बैंगलोर आया था तब मैंने कभी सोचा नहीं था कि यह शहर इतना सुन्दर और हसीं होगा! लेकिन अब यहाँ की हरियाली और मौसम ने मेरे दिल को इतना प्रभावित किया है कि मैंने यहाँ से कभी नहीं जाने का निर्णय ले लिया है!

मेरे इस महत्पूर्ण निर्णय के पीछे एक कारण और भी था जिसे बताने के लिए मुझे आप सब को थोड़ा अपने अतीत में ले जाना पड़ेगा!

मेरे अतीत का वह कारण मेरे बंगलौर पहुँचने के तीसरे दिन शुरू हुआ था और आज भी बना हुआ है।

मैं अपने आप को नए शहर के माहौल से अवगत करने के लिए अपनी नौकरी में शामिल होने की तारीक से दो सप्ताह पहले ही यहाँ पहुँच गया था।

पहला दिन तो सफ़र की थकावट दूर करने में बिता दिया और दूसरा दिन इधर उधर घूम कर तथा शहर की रौनक देखने में बिता दिया।

तीसरा दिन बारिश ने बर्बाद कर दिया क्योंकि मैं लगभग सारा दिन बालकनी में बैठा बादलों और बारिश की बूंदों को देखता रहा!

उसी दिन मुझे हमारे फ्लैट के साथ वाले फ्लैट की बालकनी में कपड़े सूखते दिखाई दिए।

मैं समय व्यतीत करने के लिए उन्हें गिनने लगा तो पाया कि कुल पच्चीस सूखते कपड़ों में से दस कपड़े किसी पुरुष के थे और पन्द्रह कपड़े किसी स्त्री के थे!

उन पन्द्रह स्त्री के कपड़ों में चार ब्रा थीं और चार पैंटी थी!

मैं उन कपड़ों की ओर टकटकी बांधे देख रहा था और उनके साइज़ के बारे में सोच रहा था।

मैं यह अनुमान नहीं लगा पा रहा था कि ब्रा का नाप 34 था या 36 था!

क्योंकि सफ़ेद रंग की एक ब्रा बाकी की तीन रंगीन ब्रा के साइज़ से बड़ी लग रही थी उन ब्रा के लटकते हुए स्ट्रैप पर लगे लेबलों पर लिखा साइज़ दूर से पढ़ने में नहीं आ रहा था।

मैं कौतूहल-वश बालकनी में चहल-कदमी करते हुए उन कपड़ों के निकट जा रहा था तभी हवा का एक तेज़ झोंका आया और कुछ कपड़े फर्श पर गिर गए जिन में से दो ब्रा और दो पैंटी भी थीं।

मैं इसी उधेड़बुन में खड़ा था कि क्या करूँ, तभी पड़ोस के घर का दरवाज़ा खुला और अन्दर से एक गोरे रंग की, बहुत ही सुन्दर और जवान स्त्री बाहर निकली।

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उसका कद लगभग पांच फुट सात इंच था, सिर के बाल घने काले थे, नयन-नक्श बहुत ही तीखे और चेहरा अंडाकार था।

उसके उभरे हुए गालों में से बाएँ गाल पर एक छोटा सा तिल था जो उसकी सुन्दरता पर चार चाँद लगा रहा था।

उसने आसमानी रंग की नाइटी पहनी हुई थी जिस में से उसके कसे हुए और सख्त दिखाई देने वाले स्तन दो मीनारों के गुम्बद की तरह उठे हुए थे।

उसे देख कर मैं थोड़ा ठिठक गया और अपनी बालकनी के बीच में ही रुक कर उसे देखता रहा!

उसने नाइटी के नीचे क्या क्या पहना था मैं इसका अनुमान तब तक नहीं लगा पाया जब तक उसने मुड़ कर मेरी और पीठ नहीं करी।

जैसे ही उसने पीठ करी तभी मुझे उसकी नाइटी से चिपकी उसकी ब्रा और जांघिया की रूपरेखा दिखाई दी और मेरी पुष्टि हो गई कि उसने पैंटी और ब्रा पहने हुई थी।

वह तार पर से कपड़े उतार कर जब फर्श पर गिरी ब्रा और पैंटी उठाने के लिए झुकी तब उसकी नाइटी के खुले गले में से उसकी ब्रा में बंधी हुई चूचियों के दर्शन ज़रूर हो गए।

जब वह फर्श से कपड़े उठा कर खड़ी हुई तब मुझे देख कर मुस्कराई और फिर अन्दर अपने घर में चली गई।

उसके जाने के बाद मैं फिर से अपनी चहल-कदमी करने लगा!

अगले दो दिन भी बादल छाए रहे और बीच बीच में वर्षा की कुछ बूंदें पड़ जाती थी इसलिए अधिकतर बालकनी में ही बैठा रहा लेकिन मुझे उस यौवना के दर्शन नहीं हुए!

उसके अगले दिन मुझे बैंगलोर में आए छटा दिन था और धूप निकली हुई थी।

भईया और भाभी के काम पर जाने के बाद मैं बाहर घूमने जाने की कोई योजना पर विचार कर रहा था, तभी मुझे किसी की सहायता के लिए चिल्लाने की आवाज़ आई!

मैं बालकनी में आकर उस आवाज़ की दिशा जानने की कोशिश ही कर रहा था तभी मुझे साथ वाले घर की ओर से एक स्त्री की पुकार सुनाई दी- हेल्प, हेल्प, प्लीज हेल्प! कोई तो मेरी सहायता करो।

मैंने उधर जा कर हल्की आवाज़ लगा कर पूछा- मैडम, आप को क्या सहायता चाहिए?

उधर से मेरे प्रश्न का उत्तर आया- मेरे गुसलखाने के दरवाज़े का लैच खराब हो गया है और वह खुल नहीं रहा है! मैं गुसलखाने में बंद हो गई हूँ और बाहर निकल नहीं पा रही हूँ! कृपया आप उसे खोल कर मुझे बाहर निकलने में सहायता कर दीजिये।

मैंने फिर पूछा- आपका वह गुसलखाना कहाँ है जिसमें आप बंद हैं और उस तक कैसे पहुँचा जा सकता है?

उस स्त्री ने कहा- मैं फ्लैट नंबर 701 में रहती हूँ और मेरा गुसलखाना फ्लैट नंबर 702 की दीवार के साथ ही है!

तब मैंने कहा- मैं फ्लैट नंबर 702 में रहता हूँ और उसी की बालकनी में खड़ा हूँ! आप बताएँ कि मैं आपके पास सहायता के लिए कैसे पहुँचूं?

तब स्त्री ने कहा- फ्लैट के बाहर का दरवाज़ा तो अन्दर से बंद है और मैं उसे खोलने में असमर्थ हूँ इसलिए आपको सहायता के लिए बालकनी से ही कोई प्रयोजन करना होगा।

मैंने उस स्त्री को कहा- ठीक है, मैं अपनी बालकनी से आपकी बालकनी में आकर देखता हूँ कि मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ।

उसके बाद मैं अपनी बालकनी से साथ वाले घर की बालकनी में लांघ कर गया और उस स्त्री को आवाज़ लगाते हुए एवं उससे बातें करते हुए उसके गुसलखाने के बाहर पहुँच गया।

वहाँ जब मैंने सर्वेक्षण किया तो पाया कि बालकनी में खुलने वाले सभी दरवाज़े घर के अन्दर से बंद थे, गुसलखाने की एकमात्र खिड़की बालकनी की ओर थी और उसमें शीशे लगे हुए थे।

खिड़की के नीचे के आधे भाग में जो शीशा लगा था वह बिल्कुल सील था और उसे खोला नहीं जा सकता था लेकिन उसके ऊपर के आधे भाग में तिरछे शीशे लगे थे जिन्हें सिर्फ अन्दर से ही निकाला जा सकता था।

मैंने खिड़की के पास खड़े होकर उस स्त्री से कहा- देखिये, आपके घर के अंदर आने के सभी रास्ते बंद हैं! आपकी सहायता के लिए मुझे सिर्फ एक ही रास्ता दिखाई दे रहा है जहाँ से आपके गुसलखाने में आने का प्रयास किया जा सकता है।

तब उस स्त्री ने कहा- तो आप उस रास्ते से क्यों नहीं सहायता करते?

मैंने उत्तर दिया- उसके लिए पहले आपको मेरी सहायता करनी पड़ेगी।

उस स्त्री ने कहा- मुझसे कैसी सहायता चाहिए आपको।

मैं बोला- गुसलखाने की खिड़की के ऊपर के भाग में जो तिरछे शीशे लगे है वह सिर्फ अंदर से ही निकाले जा सकते है! अगर आप किसी तरह उन शीशों को निकाल देवें तो मैं उस 18″ X 18″ के झरोखे में से ही अन्दर आकर दरवाज़े को खोलने का प्रयास कर सकता हूँ।

उस स्त्री ने कहा- ठीक है मैं उन शीशों को निकालने का प्रयत्न करती हूँ।

उसके बाद वह स्त्री एक बाल्टी को उल्टा रख कर उस पर खड़ी हो कर वह शीशे निकालने लगी और अगले दस मिनट में उसने वे छह शीशे निकाल दिए और वहाँ से गुसलखाने के अन्दर जाने का रास्ता बना दिया!

तब मैंने अपने घर से एक स्टूल ला कर उस खिड़की के नीचे रखा और उस पर चढ़ गया!

वहाँ से मैंने दरवाज़ा खोलने वाले संभावित उपकरणों का डिब्बा खिड़की के अन्दर उस स्त्री को पकड़ाने के लिए जैसे ही अंदर झाँका तो वहाँ का नज़ारा देख कर दंग रह गया!

कहानी का अगला भाग: गुसलखाने का बंद दरवाज़ा खोला-2

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