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कहानी : अनुष्का शर्मा सम्पादक : अरविन्द कुमार मैं अरविन्द कुमार, आपने मेरी लम्बी कहानी ‘मेरा हंसता खेलता सुखी परिवार’ पाँच भागों में पढ़ी होगी. प्रस्तुत कहानी मेरी पुत्रवधू की सहेली अनुष्का (संयोग से मेरी छोटी बेटी का नाम भी अनुष्का है), उसकी किशोरावस्था की है, इसे मैंने अपनी पुत्रवधू सोनम के आग्रह पर ही लिखा है. पेश है अनुष्का के अपने शब्दों में जैसे मुझे सोनम ने बताया वैसे ही !
उम्र के साथ साथ हम सबकी जरूरतें भी बदलती रहती हैं और लालसा भी!
मैं अनुष्का शर्मा अभी इसी साल मैंने बारहवीं कक्षा की परीक्षा पास की है।
और मेरे शरीर के साथ हो रहे परिवर्तनों के साथ ही मेरे मन में भी सेक्स को लेकर अजीब अजीब से भाव आते जाते रहते हैं।
अब मैं आपको अपनी आपबीती बताने जा रही हूँ और यह भी कि कुछ पाने का लालच क्या-क्या गुल खिलवा सकता है, काम वासना कहाँ से कहाँ तक ले जा सकती है और कुछ पाने के चक्कर में क्या क्या नहीं देना पड़ सकता है। यह बात तब की है जब मैं बारहवीं क्लास की परीक्षा देकर चुकी ही थी।
हमारे घर के ठीक साथ वाले मकान में हमारे ही कुनबे के दो खूबसूरत लड़के रहते थे, उनके पिता मेरे ताऊ लगते थे। वे दोनों ही देखने में किसी फिल्म अभिनेता से कम न थे और न ही इधर उधर की बातों से उन्हें कोई लेना देना था, बस अपने काम से काम और उनकी यही बात मुझे सबसे अच्छी लगती थी।
मोहल्ले की सभी लड़कियाँ उन्हें पटाना चाहतीं थीं क्योंकि उनमें कुछ अलग ही बात थी।
मैं भी उन लड़कियों में से एक थी और उनके बारे में सोचकर कर ही मेरी चूत के रेशमी बाल गीले हो जाया करते थे, उनके लंड की चाहत में मैं अन्दर ही अन्दर घुली जा रही थी और रात-दिन बस एक बार उनमें से कम से कम किसी एक एक लण्ड अपने हाथ में लेकर उसे मुँह में लेकर चूसने का, उनसे चुदवाने की कल्पना किया करती थी।
पर कोई मौका ही नहीं मिल रहा था बात करने का, उन्हें अपनी इच्छा बताने का।
ऐसा नहीं कि उनसे मुलाकात ही नहीं होती थी, मैं कभी कभार उनके घर भी जाती थी, थोड़ा ही आना जाना था।
किस्मत हमेशा एक सी नहीं होती, जब मेहरबान होती है तो बिन बताये ही सब कुछ दे देती है।
उस दिन मेरी किस्मत भी मेरे साथ थी। कम से कम मुझे तो यही लग रहा था।
पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था और जो किस्मत को मंजूर हो उस पर मेरा, मेरी चूत का तो कोई बस चल नहीं सकता, तो चला भी नहीं।
हर रोज की तरह उस दिन भी मैं जब अपनी छत पर घूम रही थी और उनमें से एक अपनी छत पर था।
मैं टकटकी लगाए एकटक उसको देख रहा थी तो एकदम उसने मुझे देखा।
और मैं मुस्कुराने लगी और वो भी प्रति-उत्तर में मुझे देख कर मुस्कुराये बिना न रह सका।
मैं समझ गई कि यहाँ मेरी दाल गल सकती है और मेरी तमन्ना पूरी हो सकती है।
मुझे रह रह कर अपने शरीर में सिहरन सी महसूस होने लगी, मेरे अंग अंग से आग बरसने लगी, चूचियाँ सख्त होने लगीं, चूत की बाहरी पंखुड़ियों में हलचल होने लगी और दिमाग में उसके लंड का ख्याल घूमने लगा।
न जाने वो मानेगा भी कि नहीं, कितना बड़ा और मोटा है इस सुन्दर से दिखने वाले लड़के का लौड़ा? क्या इसी की तरह इसका लंड भी हट्टा कट्टा और रसीला है?
और ऐसे न जाने कितने ख्याल एक एक कर के आने-जाने लगे।
वो भी कभी मुझे देख रहा था और कभी धीरे से अपने लंड को टटोल रहा था, लगता था उसके दिमाग में भी मेरी चूत को लेकर, मेरे उभारों और चूचियों को लेकर उथल पुथल हो रही थी।
इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता था, मैंने अपने मन के भावों को छुपाते हुए उसकी तरफ पत्थर में लपेट कर एक कागज़ का टुकड़ा भेजा जिसमें लिखा था- तुम मुझे बड़े अच्छे लगते हो, मुझसे दोस्ती करोगे?
शायद मेरी पहल का ही इन्जार कर रहा था, उसने भी झट से उत्तर दिया- अनु, तुम भी मुझे बहुत अच्छी लगती हो पर कभी कहने की हिम्मत नहीं हुई, तुमसे दोस्ती करके मैं अपने को धन्य समझूंगा।
धीरे-धीरे हम एक दूसरे से प्रेम-पत्रों से बात करने लगे क्योंकि उन दिनों बात करने का और कोई अच्छा साधन नहीं था।
अब तो हर रोज ही हम लोग छत पर मिलने लगे और बस एक दूसरे को हसरत भरी आँखों से देखते रहते और मन ही मन उस दिन की कल्पना करते रहते जिस दिन हम एक दूसरे की बाँहों में समा पाएँगे।
मैं उसके लंड को धीरे धीरे सहला हुए अपने मुँह में भर लूंगी और वो मेरी बुर के काले काले बालों के बीच में से अपने होटों और अपनी जीभ से मेरी चूत के दरवाजे पर दस्तक देगा। यह कहानी आप अन्तर्वासना डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं !
आखिर वो दिन आ ही गया… इन्तजार ख़त्म हुआ… मन में ख़ुशी भी थी और डर भी… चुदवाना भी चाहती थी और प्रेगनेंट होने का डर भी सता रहा था… पर जीतना तो चुदने-चोदने के खेल ने ही था तो प्रेगनेंट होने का डर जाता रहा और मैं सज धज कर, अपनी बुर के रेशमी बालों को साफ़ करके रात की प्रतीक्षा करने लगी।
हुआ यूँ कि एक दिन उसने मुझे रात को मिलने के बारे में पूछा।
मैंने तुरन्त उससे उस रात उसके घर आने की बात लिखकर चिट्ठी उसके दरवाजे पर फेंक दी। वो चिट्ठी पढ़ कर फ़ूला नहीं समा रहा था।
और मैं… मैं तो मन ही मन किसी मोरनी की भांति नाच रही थी, मानो जिंदगी की सबसे बड़ी ख़ुशी मिल गई हो। किसी ने कुबेर का खज़ाना दे दिया हो… उसके लंड की गर्मी को महसूस करना, उसको चूमना चाटना, अपनी चूत पर उसके लंड को रगड़ना का ख्याल किसी कुबेर के खजाने से कम भी तो नहीं था।
उस दिन तो उसका लौड़ा भी अलग ही तेवर में दिखा रहा होगा… तनतनाया हुआ खम्बे की तरह खड़ा उसके पजामे से बार बार बाहर आ रहा होगा मेरी गुलाबी चूत के दर्शन करने, मेरे मुँह में समा जाने के लिए और मेरी उभरी हुई मस्त गांड में धकापेल करने के लिए? तभी तो वो बार बार छत पर आ जा रहा था…
मैं उसकी मनोदशा देखकर बहुत खुश थी और बार बार अपनी ब्रा के अन्दर से हाथ ले जाकर अपनी चूचियों को मसल रही थी।
उस दिन की रात भी कितनी बेरहम थी, होने को ही नहीं आ रही थी!
ख़ुशी-ख़ुशी में मैंने रात को खाना भी नहीं खाया। धीरे-धीरे रात के बारह बज गए। मैं रजाई से निकल कर उनके घर के बराबर वाली दीवार से उनकी छत पर पहुँच गई।
उनकी छत पर एक कमरा था जिसमें वो पढ़ा करता था। उसी कमरे में मिलने के बारे में मैंने चिट्ठी में लिखा था।
जैसे ही मैंने दरवाजा खटखटाना चाहा तो दरवाजा पहले से ही खुला मिला।
उस वक़्त मेरी खुशियाँ सातवें आसमान पर थी।
कमरे में काफी अँधेरा था, मैं धीरे-धीरे उसका नाम पुकारते हुए उसके बेड पर पहुँच गई जिस पर कोई सोया हुआ था।
तब मुझे लगा कि वो शायद शरमा रहा है और सोने का नाटक कर रहा है।
मुझे लगा कि हम दोनों का यह पहला ही अनभव होगा, पर मुझे शर्म से ज्यादा चुदने का उत्साह था और उसे शर्म के साथ साथ चोदने का !
मैं उसके बराबर में जाकर लेट गई और धीरे धीरे उसके गालों को सहलाने लगी।
अब उसकी शर्म भी फ़ूँ करके उड़ गई और उसका हाथ मेरे मम्मों पर आ गिरा।
वो उन्हें बेसब्री से मसलने लगा, उसका लंड मेरी जांघों से टकरा टकरा कर वापस लौट जाता, मानो विनती कर रहा हो ‘मुझे अपनी टांगों के बीच में समा लो !’
उसने दूसरे हाथ से धीरे धीरे मेरे चूतड़ों को सहलाना शुरू कर दिया, मैं आनन्द और मस्ती में पागल हुए जा रही थी…
मेरा हाथ उसके लंड को टटोल रहा था, पजामे के अन्दर एकदम फुंकारते सांप की तरह, मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था, मैं तो हाथ में लेकर उसके लंड से खिलवाड़ करना चाहती थी, उसे किसी आम के तरह चूस चूस कर उसका सारा रस पी जाना चाहती थी…
तो बिना समय गवाए मैंने पजामे का नाड़ा खोल दिया और उसमें से बाहर झांकते तनतनाते लंड को अपनी मुट्ठी में जोर से भींच लिया।
उसने एक बार तो उफ़्फ़ की मगर फिर मेरी चूचियों और चूतड़ों को सहलाने पुचकारने में लग गया।
मैं उठी और गप्प से उसका लंड मुख में भर कर जैसे निगल गई।
उसकी चीख निकल गई्…
पर मुझसे इन्तजार ही नहीं हो रहा था तो मैंने तो अपने दांतों से जोर से उसका लौड़ा काट लिया।
वो दर्द में उई मा… करके चिल्लाया तो मुझे होश आया…
और मैंने धीरे धीरे अपने होटों से उसको ऊपर नीचे करना शुरू किया।
उसे मजा आ रहा था और उसकी पकड़ मेरी गांड के उभारों पर बढ़ती जा रही थी…
पर मैं तो अपनी ही मस्ती में उसका बड़ा सा लंड चूस चूस कर अपनी चूत की आग को और भड़काने में लगी थी।
अब उसका लौड़ा उसे और इन्तजार करने की इजाजत नहीं दे रहा था, वो धीरे से उठा और मुझे कंधों से पकड़ कर ऊपर उठाया…
मैंने सोचा अब वो मेरी चूत को चाटेगा, अपनी जीभ को मेरी चूत के अन्दर तक घुसा देगा, अपने लंड से जांघों की दीवारों से टकरा टकरा कर मेरा बैंड बजा देगा…
पर जब उसने ऐसा कुछ नहीं किया तो मेरा नशा उतरने लगा, मैं तडफ़ने लगी और अपने ही उंगलियों को चूत पर ले जाकर उसको सहलाने लगी।
मुझे समझ नहीं आ रहा था उसका बर्ताव…
मैंने सोचा शायद वो घबरा रहा होगा, मैंने उसका हाथ पकड़ा और अपनी चूत के पास ले गई, उसकी एक उंगली अपनी फुद्दी में डाल दी सोचा वो उत्तेजित होकर अपना लंड मेरी बुर में डाल देगा…
पर उसने ऐसा नहीं किया, वो तो और जोर जोर से मेरे चूतड़ों को दबाने लगा, उसके छेद में अपनी उंगली डालने लगा।
दर्द से मेरी चीख निकल गई, मैं समझ गई उसको मेरी चूत में नहीं मेरी गाण्ड में ज्यादा दिलचस्पी है।
मेरा काम का बुखार उतरने लगा, चुदवाने की सारी कल्पना पर पानी फिर गया, पर मजबूरी थी, मेरे पास और कोई चारा भी नहीं था तो मैंने कोई विरोध नहीं किया और जो वो कहता गया, वो मैं करती गई, जो वो करता गया गया, वो सहती रही।
उसने धीरे धीरे मुझे पूरी नंगी कर दिया और बिस्तर पर उल्टा लिटा दिया।
उस वक़्त मैं सोच रहा थी कि जो भी होना है, अब जल्दी हो जाए !
मेरा मन खिन्न हो रहा था, मुझे सिर्फ गांड मरवाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी… मैं तो चुदना चाहती थी फिर भले ही वो मेरी गांड मारे या अपनी मुठ…
मैं चुपचाप अपनी चूत को अपने ही हाथों से दबाये उल्टा लेटी रही, वो भूखे कुत्ते की तरह मेरी गाण्ड पर टूट पड़ा।
दर्द के मारे मेरी चीख निकल गई पर वो कब रुकने वाला था, जैसे जैसे मेरी चीख की आवाज बढ़ती जाती।
उसके झटके से मेरी गांड और फटती जाती, उसने दोनों हाथों से मुझे कमर से पकड़ रखा था और जोर जोर से गांड में अपने लंड को अन्दर बाहर कर रहा था, मानो किसी लड़की की नहीं किसी कुतिया की गांड मार रहा हो।
मैंने सुना था कि जब लड़की के साथ पहली बार सेक्स करते हैं तो उनकी चूत से खून निकलता है, आज मेरी गांड की हालत कुछ ऐसी ही थी।
मेरी गांड से खून निकल रहा था लेकिन वो खून की परवाह न करते हुए धक्के मारता ही रहा।
उसका लंड जल्दी से झड़ने का नाम नहीं ले रहा था क्योंकि अभी वो जवान था, शायद पहली बार किसी की गांड मार रहा था?
लगभग बीस मिनट बाद उसका लंड से पिचकारी जैसे पानी निकला और वो निढाल होकर मेरी गांड के ऊपर ही लेट गया।
मैं कुछ देर इन्तजार करती रही और फिर उसे बराबर में धकेल दिया, अनमने मन से अपने कपड़े पहने और चुपचाप अपनी चूत का पानी चूत में ही लिए अपने घर लौट आई।
इस दिन के बाद मैंने मन ही मन सोच लिया अब कभी किसी मर्द से चुदवाने का ख्याल भी अपने मन में नहीं आने दूँगी।
पर मन तो मन है, कब फिसल जाये कोई नहीं जानता !
इस बार जो मेरा मन फिसला तो बस ऐसे की आज तक भी उसके भाई के साथ अटका हुआ है!
क्या चोदता है… उफ्फ्फ तौबाआह… फिर कभी बताऊँगी…
मुझे जरूर बताना आपको यह कहानी कैसी लगी।
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