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शगन कुमार
मैं खाना गरम करने में लग गई। भोंपू के साथ बिताये पल मेरे दिमाग में घूम रहे थे।
खाना खाने के बाद शीलू और गुंटू अपने स्कूल का काम करने में लग गए। भोंपू ने रात के खाने का बंदोबस्त कर ही दिया था सो वह कल आने का वादा करके जाने लगा। उसने इशारे इशारे में मुझे आगाह किया कि मुझे थोड़ा लंगड़ा कर और करहा कर चलना चाहिए। शीलू और गुंटू को लगना चाहिए कि अभी चोट ठीक नहीं हुई है। मैंने इस हिदायत को एकदम अमल में लाना शुरू किया और लंगड़ा कर चलने लगी।
मैंने खाने के बर्तन ठीक से लगाये और कुछ देर बिस्तर पर लेट गई।
“दीदी, हम बाहर खेलने जाएँ?” शीलू की आवाज़ ने मेरी नींद तोड़ी।
“स्कूल का काम कर लिया?”
“हाँ !”
“दोनों ने?”
“हाँ दीदी… कर लिया।” गुंटू बोला।
“ठीक है… जाओ… अँधेरा होने से पहले आ जाना !”
मैं फिर से लेट गई। खाना बनाना नहीं था… सो मेरे पास फुरसत थी। मेरी आँखों के सामने भोंपू का खून से सना लिंग नाच रहा था। मैंने अपनी उंगली योनि पर रख कर यकीन किया कि कोई चोट या दर्द तो नहीं है। मुझे डर था कि ज़रूर मेरी योनि चिर गई होगी। पर हाथ लगाने से ऐसा नहीं लगा। बस थोड़ी सूजन और संवेदना का अहसास हुआ। मुझे राहत मिली।
इतने में ही दरवाज़े के खटखटाने की आवाज़ ने मुझे चौंका दिया।
‘इस समय कौन हो सकता है?’ सोचते हुए मैंने दरवाज़ा खोला।
“अरे आप?!”
सामने नितेश को देखकर मैं सकते में थी। वह मुस्कुरा रहा था… उसने सफ़ेद टी-शर्ट और निकर पहन रखी थी और उसके हाथ में बैडमिंटन का रैकिट था। उसका बदन पसीने में था… लगता था खेलने के बाद वह सीधा आ रहा था।
“क्यों? चौंक गई?”
“जी !” मैंने नीची नज़रों से कहा।
“अंदर आने को नहीं कहोगी?”
“ओह… माफ कीजिये… अंदर आइये !”
मैं रास्ते से हटी और उन्हें कुर्सी की तरफ इशारा करके दौड़ कर पानी लेने चली गई। मैंने एक धुले हुए ग्लास को एक बार और अच्छे से धोया और फिर मटके से पानी डालकर नितेश को दे दिया।
“एक ग्लास और मिलेगा?” उसने गटक से पानी पीकर कहा।
“जी !” कहते हुए मैंने ग्लास उनके हाथ से लिया और जाने लगी तो नितेश ने मेरा हाथ थाम लिया।
“घर में अकेली हो?”
“जी… शीलू, गुंटू खेलने गए हैं…”
“मुझे मालूम है… मैं उनके जाने का ही इंतज़ार कर रहा था…”
“जी?” मेरे मुँह से निकला।
“मैं तुमसे अकेले में मिलना चाहता था।”
मैंने कुछ नहीं कहा पर पहली बार नज़र ऊपर करके नितेश की आँखों में आँखें डाल कर देखा।
“तुम बहुत अच्छी लगती हो !” नितेश ने मेरा हाथ और ज़ोर से पकड़ते हुए कहा।
“जी, मैं पानी लेकर आई !” कहते हुए मैं अपना हाथ छुड़ा कर रसोई में लंगडाती हुई भागी। मेरी सांस तेज़ हो गई थी और मेरे माथे पर पसीना आ गया था।
नितेश मेरे पीछे पीछे रसोई में आया और पूछने लगा,” यः तुम्हारे पांव को क्या हुआ?”
“गिर गई थी।” मैंने दबी आवाज़ में कहा।
“मोच आई है?”
“जी !”
“तो भाग क्यों रही हो?”
मेरा पास इसका कोई जवाब नहीं था।
“मेरी तरफ देखो !” नितेश ने एक बार फिर मेरा हाथ पकड़ा और कहा।
मैंने नज़रें नीची ही रखीं।
“देखो, शरमाओ मत… ऊपर देखो !” मैंने धीरे धीरे ऊपर देखा। उसके चहरे पर मुस्कराहट थी।
“तुम इसीलिए मुझे बहुत अच्छी लगती हो… तुम शर्मीली हो…”
मेरी आँखें नीची हो गईं।
“देखो… फिर शरमा गई… आजकल शर्मीली लड़कियाँ कहाँ मिलती हैं… मेरे कॉलेज में देखो तो पता चलेगा… लड़के ही शरमा जाएँ !”
मैं क्या कहती… चुप रही… और उसको पानी का ग्लास दे दिया। उसने एक लंबी सांस ली और एक ही सांस में पी गया।
“आह… मज़ा आ गया।” मैंने नितेश की तरफ प्रश्नवाचक निगाह उठाई।
“तुम्हारे हाथ का पानी पीकर !!” वह बोला।
वैसे मुझे नितेश अच्छा लगता था पर मुझे उसकी साथ दोस्ती या कोई रिश्ता बनाने में रूचि नहीं थी। मेरे और उसके बीच इतना फर्क था कि दूर ही रहना बेहतर था। मुझे माँ की वह बात याद थी कि दोस्ती और रिश्ता हमेशा बराबर वालों के साथ ही चलता है। मेरी परख में नितेश कोई बिगड़ा हुआ अय्याश लड़का नहीं था और ना ही उसके बर्ताव में घमण्ड की बू आती थी… बल्कि वह तो मुझे एक सामान्य और अच्छा लड़का लगता था। ऐसे में उसका इस तरह मेरी तारीफ करना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था परन्तु हमारे सामाजिक फासले की खाई पाटना मेरे लिए दुर्लभ था। मेरे मन में कश्मकश चल रही थी…
“क्या सोच रही हो? कि मैं एक अमीर लड़का हूँ और तुम्हारे साथ दोस्ती नहीं कर सकता?”
“जी नहीं… सोच रही हूँ कि मैं एक गरीब लड़की हूँ और आपके साथ कैसे दोस्ती कर सकती हूँ?”
“तुम मेरी दोस्त हो गई तो गरीब कहाँ रही?… देखो, मैं उनमें से नहीं जो तुम्हारी जवानी और देह का इस्तेमाल करना चाहते हैं…”
“मैं जानती हूँ आप वैसे नहीं हैं… फिर भी… कहाँ आप और कहाँ मैं?” कहते कहते मेरी आँखों में आंसू आ गए और मैंने अपना चेहरा अपने हाथों में छिपा लिया।
नितेश ने मेरे हाथ मेरे चेहरे से हटाये और मुझे गले लगा लिया। मैं और भी सहम गई और सांस रोके खड़ी रही।
“घबराओ मत… मैं कोई ज़ोर जबरदस्ती नहीं करूँगा… दोस्ती तो तुम्हारी मर्ज़ी से ही होगी… जब तुम मुझे अपने लायक समझने लगोगी…”
“आप ऐसा क्यों कह रहे हैं… मेरा मतलब यह नहीं था… मैं ही आप के काबिल नहीं हूँ…”
“ऐसा मत सोचो… तुम्हारे पास धन नहीं है, बस… बाकी तुम्हारे पास वह सब है जो किसी भले मानस को एक लड़की में चाहिए होता है।”
मैं यह सुनकर बहुत खुश हुई। हम अभी भी आलिंगनबद्ध थे… मैंने अपने हाथ उठा कर उसकी पीठ पर रख दिए। उसने मेरे हाथ का स्पर्श भांपते ही मुझे और ज़ोर से जकड़ लिया और मेरे गाल पर प्यार कर लिया। थोड़ी देर हम ऐसे ही खड़े रहे। फिर उसने अपने आप को छुटाते हुए कहा,” तुम ठीक कहती हो… दोस्ती बराबर वालों से ही होती है…” मैं फिर से सहम गई।
“इसलिए, अब से हम बराबर के हैं, हमारी उम्र तो वैसे भी एक सी ही है… तुम मुझसे तीन साल छोटी हो, इतना फर्क चलेगा… अब से तुम मुझे मेरे नाम से बुलाओगी… ठीक है?”
“जी !” मैंने कहा।
“अब से जी वी नहीं चलेगा… तुम मुझसे दोस्त की तरह पेश आओगी… ठीक है?”
“जी !”
“फिर वही जी… मेरा नाम क्या है?”
“जी, मालूम है !”
“मेरा नाम बोलो…”
“जी…!”
“एक बार और जी बोला तो मैं गुस्सा हो जाऊँगा।” उसने मेरी बात काटते हुए चेतावनी दी…
“अब मेरा नाम लो।”
“नितेश जी।”
“उफ़… ये जी तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा क्या?” नितेश ने गुसैले प्यार से कहा और मुझे फिर से गले लगा लिया।
“तुम्हारे होटों पर मेरा नाम कितना प्यारा लगता है… सरोजा जी।”
“आप मुझे जी क्यों कह रहे हैं? आप मुझसे बड़े हैं… दोस्ती का मतलब यह नहीं कि हम अदब और कायदे भूल जाएँ… आप मुझे भोली ही बुलाइए… मैं आपका नाम नहीं लूंगी… हमारे यहाँ यही रिवाज़ है।” मैंने आलिंगन तोड़ते हुए दृढ़ता से कहा।
“ओह… तुम इतने दिन कहाँ थीं? तुम कितनी समझदार हो !… ठीक है… जैसा तुम कहोगी वैसा ही होगा।” नितेश ने मुझसे प्रभावित होते हुए कहा और फिर से अपनी बाहों में ले लिया।
मुझे अपनी यह छोटी सी जीत अच्छी लगी। अब हम दोनों सोच नहीं पा रहे थे कि आगे क्या करें। मैंने ही अपने आप को उसकी बाहों से दूर किया और पूछा,” चाय पियेंगे?”
“उफ़… ऐसे ही चाय नहीं बना सकती?” नितेश ने फिर से मेरी तरफ बाहें करते हुए कहा।
“जी नहीं !” मैंने ‘जी’ पर कुछ ज़्यादा ही ज़ोर देते हुए उसे चिढ़ाया और उसके चंगुल से बचती हुई गैस पर पानी रखने लगी।
“चलो मैं भी देखूं चाय कैसे बनती है।” नितेश मेरे पीछे आकर खड़े होकर बोला।
“आपको चाय भी बनानी नहीं आती?” मैंने आश्चर्य से पूछा।
“जी नहीं !” उसने ‘जी’ पर मुझसे भी ज़्यादा ज़ोर देकर कहा।
मैं हँस पड़ी।
“तुम हँसती हुई बहुत अच्छी लगती हो !”
“और रोती हुई?” मैंने रुआंसी सूरत बनाते हुए पूछा।
“बिल्कुल गन्दी लगती हो… डरावनी लगती हो।” नितेश ने हँसते हुए कहा।
“आप भी हँसते हुए अच्छे लगते हो।”
“और रोता हुआ?”
“छी… रोएँ तुम्हारे दुश्मन… मैं तुम्हें रोने नहीं दूँगी।” ना जाने कैसे मैंने यह बात कह दी। नितेश चकित भी हुआ और खुश भी।
“सच… मुझे रोने नहीं दोगी… I am so lucky !! मैं भी तुम्हें कभी रोने नहीं दूंगा।” कहकर उसने मेरे चेहरे को अपने हाथों में ले लिया और इधर-उधर चूमने लगा।
“अरे अरे… ध्यान से… पानी उबल रहा है।” मैंने उसे होशियार किया।
“सिर्फ पानी ही नहीं उबल रहा… तुमने मुझे भी उबाल दे दिया है…” नितेश ने मुझे गैस से दूर करते हुए दीवार के साथ सटा दिया और पहली बार मेरे होंटों पर अपने होंट रख दिए। मैंने आँखें बंद कर लीं।
नितेश बड़े प्यार से मेरे बंद मुँह को अपने मुँह से खोलने की मशक्क़त करने लगा। उसने मुझे दीवार से अलग करके अपनी तरफ खींचा और अपनी बाँहें मेरी पीठ पर रखकर दोबारा मुझे दीवार से लगा दिया। अब उसके हाथ मेरी पीठ को और उसके होंट और जीभ मेरे मुँह को टटोल रहे थे। मैंने कुछ देर टालम-टोल करने के बाद अपना मुँह खुलने दिया और उसकी जीभ को प्रवेश की इजाज़त दे दी। नितेश ने एक हाथ मेरी पीठ से हटाकर मेरे सिर के पीछे रख दिया और उसके सहारे मेरे सिर को थोड़ा टेढ़ा करके अपने लिए व्यवस्थित किया। अब उसने अपना मुँह ज़्यादा खोलकर मेरे मुँह में अपनी जीभ डाल दी और दंगल करने लगा। उसकी जीभ मेरे मुँह में चंचल हिरनी की तरह इधर उधर जा रही थी। नितेश एक प्यासे बच्चे की तरह मेरे मुँह का रसपान कर रहा था। उसने मेरी जीभ को अपने मुँह में खींच लिया और मुझे भी उसके रस का पान करने के लिए विवश कर दिया।
मैंने हिम्मत करके अपनी जीभ उसके मुँह में फिरानी शुरू कर दी।
अचानक मुझे गुंटू के दौड़ कर आने की आवाज़ आने लगी। वह “दीदी… दीदी…” चिल्लाता हुआ आ रहा था। मैंने हडबड़ा कर अपने आपको नितेश से अलग किया… एक हाथ से अपने कपड़े सीधे किये और दूसरे से अपना मुँह साफ़ किया और नितेश को “सॉरी !” कहती हुई बाहर भाग गई। उस समय मैं लंगड़ाना भूल गई थी… पता नहीं गुंटू को क्या हो गया था… मुझे चिंता हो रही थी। मैं जैसे ही दरवाज़े तक पहुंची, गुंटू हांफता हांफता आया और मुझसे लिपट कर बोला,”दीदी… दीदी… पता है…?”
“क्या हुआ?” मैंने चिंतित स्वर में पूछा।
“पता है… हम बगीचे में खेल रहे थे…” उसकी सांस अभी भी तेज़ी से चल रही थी।
“हाँ हाँ… क्या हुआ?”
“वहाँ न… मुझे ये मिला ..” उसने मुझे एक 100 रुपए का नोट दिखाते हुए बताया।
“बस?… मुझे तो तुमने डरा ही दिया था।”
“दीदी .. ये 100 रुपए का नोट है… और ये मेरा है..”
“हाँ बाबा… तेरा ही है… खेलना पूरा हो गया?”
“नहीं… ये रख… किसी को नहीं देना…” गुंटू मेरे हाथ में नोट रख कर वापस भाग गया। मुझे राहत मिली कि उसे कोई चोट वगैरह नहीं लगी थी। मैं दरवाज़ा बंद करके, लंगड़ाती हुई, वापस रसोई में आ गई जहाँ नितेश छुप कर खड़ा था।
“इस लड़के ने तो मुझे डरा ही दिया था” मैंने दुपट्टे से अपना चेहरा पोंछते हुए कहा।
“मुझे भी !” नितेश ने एक ठंडी सांस छोड़ते हुए जवाब दिया।
“आपको क्यों?”
“अरे… अगर वह हमें ऐसे देख लेता तो?”
“गुंटू तो बच्चा है।” मैंने सांत्वना दी।
“आजकल के बच्चों से बच कर रहना… पेट से ही सब कुछ सीख कर आते हैं !!” उसने मुझे सावधान करते हुए कहा।
“सच?” मैंने अचरज में पूछा।
“हाँ… इन को सब पता होता है… खैर, अब मैं चलता हूँ… वैसे अगले सोमवार मेरी सालगिरह है… मैं तो तुम्हें न्योता देने आया था।”
“मुझे?”
“और नहीं तो क्या? मेरी पार्टी में नहीं आओगी?”
“देखो, अगर तुम मुझे अपना असली दोस्त समझते हो तो मेरी बात मानोगे…” मैंने गंभीर होते हुए कहा।
“क्या?”
“यही कि मैं तुम्हारी पार्टी में नहीं आ सकती।”
“क्यों?”
“क्योंकि सब तुम्हारी तरह नहीं सोचते… और मैं वहाँ किसी और को नहीं जानती… तुम सारा समय सिर्फ मेरे साथ नहीं बिता पाओगे … फिर मेरा क्या?”
“तुम वाकई बहुत समझदार हो… पर मैं तुम्हारे साथ भी तो अपना जन्मदिन मनाना चाहता हूँ।” उसने बच्चों की तरह कहा।
“मैं भी तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हें बधाई देना चाहती हूँ… पर इसके लिए पार्टी में आना तो ज़रूरी नहीं।”
“फिर?”
“पार्टी किस समय है?”
“शाम को 7 बजे से है ”
“ठीक है… अगर तुम दोपहर को आ सकते हो तो यहाँ आ जाना… मैं तुम्हारे लिए अपने हाथ से खाना बनाऊँगी…”
“सच?”
“सच !”
“ठीक है… भूलना मत !”
“मैं तो नहीं भूलूंगी… तुम मत भूलना… और देर से मत आना !”
“मैं तो सुबह सुबह ही आ जाऊँगा !”
“सुबह सुबह नहीं… शीलू गुंटू स्कूल चले जाएँ और मैं खाना बना लूं… मतलब 12 बजे से पहले नहीं और साढ़े 12 के बाद नहीं… ठीक है?”
“तुम्हें तो फ़ौज में होना चाहिए था… ठीक है कैप्टेन ! मैं सवा 12 बजे आ जाऊँगा।”
“ठीक है… अब भागो… शीलू गुंटू आने वाले होंगे।”
“ठीक है… जाता हूँ।” कहते हुए नितेश मेरे पास आया और मेरे पेट पर से मेरा दुपट्टा हटाते हुए मेरे पेट पर एक ज़ोरदार पप्पी कर दी।
“अइयो ! ये क्या कर रहे हो !?”… मैंने गुदगुदी से भरे अपने पेट को अंदर करते हुए कहा।
“मुझे भी पता नहीं…” कहकर नितेश मेरी तरफ हवा में पुच्ची फेंकता हुआ वहाँ से भाग गया।
रात को मुझे नींद नहीं आ रही थी। हरदम नितेश या भोंपू के चेहरे और उनके साथ बिताये पल याद आ रहे थे। मेरे जीवन में एक बड़ा बदलाव आ गया था। अब मुझे अपने बदन की ज़रूरतों का अहसास हो गया था। जहाँ पहले मैं काम से थक कर रात को गहरी नींद सो जाया करती थी वहीं आज नींद मुझसे कोसों दूर थी।
मैं करवटें बदल रही थी… जहाँ जहाँ मर्दाने हाथों के स्पर्श से मुझे आनंद मिला था, वहाँ वहाँ अपने आप को छू रही थी… पर मेरे छूने में वह बात नहीं थी। जैसे तैसे सुबह हुई और…
कहानी जारी रहेगी !
शगन
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