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लेखक : प्रेम गुरु प्रेषिका : स्लिमसीमा (सीमा भारद्वाज) तीसरे भाग से आगे :
‘भौजी…चलो कमरे में चलते हैं !’ ‘वो..वो…क.. कम्मो…?’ मैं तो कुछ बोल ही नहीं पा रही थी। ‘ओह.. तुम उसकी चिंता मत करो उसे दाल बाटी ठीक से पकाने में पूरे दो घंटे लगते हैं।’ ‘क्या मतलब…?’ ‘वो.. सब जानती है…! बहुत समझदार है खाना बहुत प्रेम से बनाती और खिलाती है।’ जगन हौले-हौले मुस्कुरा रहा था।
अब मुझे सारी बात समझ आ रही थी। कल वापस लौटते हुए ये दोनों जो खुसर फुसर कर रहे थे और फिर रात को जगन ने मंगला के साथ जो तूफानी पारी खेली थी लगता था वो सब इस योजना का ही हिस्सा थी। खैर जगन ने मुझे अपनी गोद में उठा लिया तो मैंने भी अपनी बाहें उसके गले में डाल दी। मेरा जिस्म वैसे भी बहुत कसा हुआ और लुनाई से भरा है। मेरी तंग चोली में कसे उरोज उसके सीने से लगे थे। मैंने भी अपनी नुकीली चूचियाँ उसकी छाती से गड़ा दी।
हम दोनों एक दूसरे से लिपटे कमरे में आ गए। उसने धीरे से मुझे बेड पर लेटा दिया और फिर कमरे का दरवाजे की सांकल लगा ली। मैं आँखें बंद किये बेड पर लेटी रही। अब जगन ने झटपट अपने सारे कपड़े उतार दिए। अब उसके बदन पर मात्र एक पत्तों वाला कच्छा बचा था। कच्छा तो पूरा टेंट बना था। वो मेरे बगल में आकर लेट गया और अपना एक हाथ मेरी साड़ी के ऊपर से ही मेरी चूत पर लगा कर उसका छेद टटोलने लगा। दूसरे हाथ से वो मेरे उरोजों को मसलने लगा।
फिर उसने मेरी साड़ी को ऊपर खिसकाना शुरू कर दिया। मैंने अपनी जांघें कस लीं। मेरी काली पेंटी में मुश्किल से फंसी मेरी चूत की मोटी फांकों को देख कर तो उसकी आँखें ही जैसे चुंधिया सी गई।
उसने पहले तो उस गीली पेंटी के ऊपर से सूंघा फिर उस पर एक चुम्मा लेते हुए बोला,’भौजी.. ऐसे मज़ा नहीं आएगा ! कपड़े उतार देते हैं।’
मैं क्या बोलती। उसने खींच कर पहले तो मेरी साड़ी और फिर पेटीकोट उतार दिया। मेरे विरोध करने का तो प्रश्न ही नहीं था। फिर उसने मेरा ब्लाउज भी उतार फेंका। मैं तो खुद जल्दी से जल्दी चुदने को बेकरार थी। मेरे ऊपर नशा सा छाने लगा था और मेरी आँखें उन्माद में डूबने लगी थी। मेरा अंदाज़ा था वो पहले मेरी चूत को जम कर चूसेगा पर वो तो मुझे पागल करने पर उतारू था जैसे। अब उसने मेरी ब्रा भी उतार दी तो मेरे रस भरे गुलाबी संतरे उछल कर जैसे बाहर आ गए। मेरे उरोजों की घुन्डियाँ ज्यादा बड़ी नहीं हैं बस मूंगफली के दाने जितनी गहरे गुलाबी रंग की हैं। उसने पहले तो मेरे उरोज जो अपने हाथ से सहलाया फिर उसकी घुंडी अपने मुँह में लेकर चूसने लगा। मेरी सीत्कार निकलने लगी। मेरा मन कर रहा था वो इस चूसा-चुसाई को छोड़ कर जल्दी से एक बार अपना खूंटा मेरी चूत में गाड़ दे तो मैं निहाल हो जाऊं।
बारी-बारी उसने दोनों उरोजों को चूसा और फिर मेरे पेट, नाभि और पेडू को चूमता चला गया। अब उसने मेरी पेंटी के अंदर बने उभार के ऊपर मुँह लगा कर सूंघा और फिर उस उभार वाली जगह को अपने मुँह में भर लिया। मेरे सारे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई और मुझे लगा मेरी छमिया ने फिर पानी छोड़ दिया।
फिर उसने काली पेंटी को नीचे खिसकाना शुरू कर दिया। मैंने दो दिन पहले ही अपनी झांटे साफ़ की थी इसलिए वो तो अभी भी चकाचक लग रही थी। आपको बता दूं कि मेरी ज्यादा चुदाई नहीं हुई थी तो मेरी फांकों का रंग अभी काला नहीं पड़ा था। मोटी मोटी फांकों के बीच चीरे का रंग हल्का भूरा गुलाबी था। मरी चूत की दोनों फांकें इतनी मोटी थी कि पेंटी उनके अंदर धंस जाया करती थी और उसकी रेखा बाहर से भी साफ़ दिखती थी। उसने केले के छिलके की तरह मेरी पेंटी को निकाल बाहर किया। मैंने अपने चूतड़ उठा कर पेंटी को उतारने में पूरा सहयोग किया। पर पेंटी उतार देने के बाद ना जाने क्यों मेरी जांघें अपने आप कस गई।
अब उसने अपने दोनों हाथ मेरी केले के तने जैसी जाँघों पर रखे और उन्हें चौड़ा करने लगा। मेरा तो सारा खजाना ही जैसे खुल कर अब उसके सामने आ गया था। वो थोड़ा नीचे झुका और फिर उसने पहले तो मेरी चूत पर हाथ फिराए और फिर उस पतली लकीर पर उंगुली फिराते हुए बोला,’भौजी.. तुम्हारी लाडो तो बहुत खूबसूरत है। लगता है उस गांडू गणेश ने इसका कोई मज़ा नहीं लिया है।’
मैंने शर्म के मारे अपने हाथ अपने चहरे पर रख लिए। अब उसने दोनों फांकों की बालियों को पकड़ कर चौड़ा किया और फिर अपनी लपलपाती जीभ उस झोटे की तरह मेरी लाडो की झिर्री के नीचे से लेकर ऊपर तक फिर दी। फिर उसने अपनी जीभ को 3-4 बार ऊपर से नीचे और फिर नीचे से ऊपर फिराया। मेरी लाडो तो पहले से ही काम रस से लबालब भरी थी। मैंने अपने आप ओ रोकने की बहुत कोशिश की पर मेरी सीत्कार निकलने लगी। कुछ देर जीभ फिराने के बाद उसने मेरी लाडो को पूरा का पूरा मुँह में भर लिया और जोर जोर से चूसने लगा। मेरे लिए यह किसी स्वर्ग के आनंद से कम नहीं था।
गणेश को चूत चाटने और चूसने का बिल्कुल भी शौक नहीं है। एक दो बार मेरे बहुत जोर देने पर उसने मेरी छमिया को चूसा होगा पर वो भी अनमने मन से। जिस तरह से जगन चुस्की लगा रहा था मुझे लगा आज मेरा सारा मधु इसके मुँह में ही निकल जाएगा। उसकी कंटीली मूंछें मेरी लाडो की कोमल त्वचा पर रगड़ खाती तो मुझे जोर की गुदगुदी होती और मेरे सारे शरीर में अनोखा रोमांच भर उठता।
उसने कोई 5-6 मिनट तो जरुर चूसा होगा। मेरी लाडो ने कितना शहद छोड़ा होगा मुझे कहाँ होश था। पता नहीं यह चुदाई कब शुरू करेगा। अचानक वो हट गया और उसने भी अपने कच्छे को निकाल दिया। 8 इंच काला भुजंग जैसे अपना फन फैलाए ऐसे फुन्कारें मार रहा था जैसे चूत में गोला बारी करने को मुस्तैद हो। उसने अपने लण्ड को हाथ में पकड़ लिया और 2-3 बार उसकी चमड़ी ऊपर नीचे की फिर उसने नीचे होकर मेरे होंठों के ऊपर फिराने लगा। मैंने कई बार गणेश की लुल्ली चूसी थी पर यह तो बहुत मोटा था। मैंने उसे अपने दोनों हाथों की मुट्ठियों में पकड़ लिया। आप उस की लंबाई और मोटाई का अंदाज़ा बखूबी लगा सकते हो कि मेरी दोनों मुट्ठियों में पकड़ने के बावजूद भी उसका सुपारा अभी बाहर ही रह गया था। मैंने अपनी दोनों बंद मुट्ठियों को 2-3 बार ऊपर नीचे किया और फिर उसके सुपारे पर अपनी जीभ फिराने लगी तो उसका लण्ड झटके खाने लगा।
‘भौजी इसे मुँह में लेकर एक बार चूसो बहुत मज़ा आएगा।’
मैंने बिना कुछ कहे उसका सुपारा अपने मुँह में भर लिया। सुपारा इतना मोटा था कि मुश्किल से मेरे मुँह में समाया होगा। मैंने उसे चूसना चालू कर दिया पर मोटा होने के कारण मैं उसके लण्ड को ज्यादा अंदर नहीं ले पाई। अब तो वो और भी अकड़ गया था। जगन ने अपनी आँखें बंद कर रखी थी और दोनों हाथों से मेरा सर पकड़ कर सीत्कार करने लगा था। मुझे डर था कहीं उसका लण्ड मेरे मुँह में ही अपनी मलाई ना छोड़ दे। मैं ऐसा नहीं चाहती थी। 3-4 मिनट चूसने के बाद मैंने उसका लण्ड अपने मुँह से बाहर निकाल दिया। मेरा तो गला और मुँह दोनों दुखने लगे थे।
अब वो मेरी जाँघों के बीच आ गया और मेरी चूत की फांकों पर लगी बालियों को चौड़ा करके अपने लण्ड का सुपारा मेरी छमिया के छेद पर लगा दिया। मैं डर और रोमांच से सिहर उठी। हे झूले लाल… इतना मोटा और लंबा मूसल कहीं मेरी छमिया को फाड़ ही ना डाले। मुझे लगा आज तो मेरी लाडो का चीरा 4 इंच से फट कर जरुर 5 इंच का हो जाएगा। पर फिर मैंने सोचा जब ओखली में सर दे ही दिया है तो अब मूसल से क्या डरना।
अब उसने अपना एक हाथ मेरी गर्दन के नीचे लगा लिया और दूसरे हाथ से मेरे उरोजों को मसलने लगा। फिर उसने अपनी अंगुली और अंगूठे के बीच मेरे चुचूक को दबा कर उसे धीरे धीरे मसलने लगा। मेरी सिसकारी निकल गई। मेरी छमिया तो जैसे पीहू पीहू करने लगी थी। उसका मोटा लण्ड मेरी चूत के मुहाने पर ठोकर लगा रहा था। मुझे बड़ी हैरानी हो रही थी यह अपना मूसल मेरी छमिया में डाल कर उसे ओखली क्यों नहीं बना रहा। मेरा मन कर रहा था कि मैं ही अपने नितंब उछाल कर उसका लण्ड अंदर कर लूँ। मेरा सारा शरीर झनझना रहा था और मेरी छमिया तो जैसे उसका स्वागत करने को अपना द्वार चौड़ा किये तैयार खड़ी थी।
अचानक उसने एक झटका लगाया और फिर उसका मूसल मेरी छमिया की दीवारों को चौड़ा करते हुए अंदर चला गया। मेरी तो मारे दर्द के चीख ही निकल गई। धक्का इतना जबरदस्त था कि मुझे दिन में तारे नज़र आने लगे थे। मुझे लगा उसका मूसल मेरी बच्चेदानी के मुँह तक चला गया है और गले तक आ जाएगा। मैं दर्द के मारे कसमसाने लगी। उसने मुझे कस कर अपनी अपनी बाहों में जकड़े रखा। उसने अपने घुटने मोड़ कर अपनी जांघें मेरी कमर और कूल्हों के दोनों ओर ज्यादा कस ली। मैं तो किसी कबूतरी की तरह उसकी बलिष्ट बाहों में जकड़ी फड़फड़ा कर ही रह गई। मेरे आंसू निकल गए और छमिया में तो ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने उसे तीखी छुरी से चीर दिया है। मुझे तो डर लग रहा था कहीं वो फट ना गई हो और खून ना निकलने लगा हो।
कुछ देर वो मेरे ऊपर शांत होकर पड़ा रहा। उसने अपनी फ़तेह का झंडा तो गाड़ ही दिया था। उसने मेरे गालों पर लुढ़क आये आंसू चाट लिए और फिर मेरे अधरों को चूसने लगा। थोड़ी देर में उसका लण्ड पूरी तरह मेरी चूत में समायोजित हो गया। मुझे थोड़ा सा दर्द तो अभी भी हो रहा था पर इतना नहीं कि सहन ना किया जा सके। साथ ही मेरी चूत की चुनमुनाहट तो अब मुझे रोमांचित भी करने लगी थी। अब मैंने भी सारी शर्म और दर्द भुला कर आनंद के इन क्षणों को भोगने का मन बना ही लिया था। मैंने उसकी जीभ अपने मुँह में भर ली और उसे ऐसे चूसने लगी जैसे उसने मेरी छमिया को चूसा था। कभी कभी मैं भी अपनी जीभ उसके मुँह में डालने लगी थी जिसे वो रसीली कुल्फी की तरह चूस रहा था।
उसने हालांकि मेरी छमिया की फांकों और कलिकाओं को बहुत कम चूसा था पर जब वो कलिकाओं को पूरा मुँह में भर कर होले होले उनको खींचता हुआ मुँह से बाहर निकालता था तो मेरा रोमांच सातवें आसमान पर होता था। जिस अंदाज़ में अब वो मेरी जीभ चूस रहा था मुझे बार बार अपनी छमिया के कलिकाओं की चुसाई याद आ रही थी।
ओह… मैं भी कितना गन्दा सोच रही हूँ। पर आप सभी तो बहुत गुणी और अनुभवी हैं, जानते ही हैं कि प्रेम और चुदाई में कुछ भी गन्दा नहीं होता। जितना मज़ा इस मनुष्य जीवन में ले लिया जाए कम है। पता नहीं बाद में किस योनि में जन्म हो या फिर कोई गणेश जैसा लोल पल्ले पड़ जाए।
मेरी मीठी सीत्कार अपने आप निकलने लगी थी। मुझे तो पता ही नहीं चला कि कब जगन ने होले होले धक्के भी लगाने शुरू कर दिए थे। मुझे कुछ फंसा फंसा सा तो अनुभव हो रहा था पर लण्ड के अंदर बाहर होने में कोई दिक्कत नहीं आ रही थी। वो एक जोर का धक्का लगता और फिर कभी मेरे गालों को चूम लेता और कभी मेरे होंठों को। कभी मेरे उरोजों को चूमता मसलता और कभी उनकी घुंडियों को दांतों से दबा देता तो मेरी किलकारी ही गूँज जाती। अब तो मैं भी नीचे से अपने नितम्बों को उछल कर उसका साथ देने लगी थी।
हम दोनों एक दूसरे की बाहों में किसी अखाड़े के पहलवानों की तरह गुत्थम गुत्था हो रहे थे। साथ साथ वो मुझे गालियाँ भी निकाल रहा था। मैं भला पीछे क्यों रहती। हम दोनों ने ही चूत भोसड़ी लण्ड चुदाई जैसे शब्दों का भरपूर प्रयोग किया। जितना एक दूसरे को चूम चाट और काट सकते थे काट खाया। जितना उछल-कूद और धमाल मचा सकते थे हमने मचाई। वो कोशिश कर रहा था कि जितना अंदर किया जा सके कर दे। इतनी कसी हुई चूत उसे बहुत दिनों बाद नसीब हुई थी। मैंने अपनी जांघें जितनी चौड़ी की जा सकती थी कर ली ताकि वो ज्यादा से ज्यादा अंदर डाल सके। मुझे तो लगा मैं पूर्ण सुहागन तो आज ही बनी हूँ। सच कहूं तो इस चुदाई जैसे आनंद को शब्दों में तो वर्णित किया ही नहीं जा सकता।
वो लयबद्ध ढंग से धक्के लगता रहा और मैं आँखें बंद किये सतरंगी सपनों में खोई रही। वो मेरा एक चूचक अपने मुँह में भर कर चूसे जा रहा था और दूसरे को मसलता जा रहा था। मैं उसके सर और पीठ को सहला रही थी। और उसके धक्कों के साथ अपने चूतड़ भी ऊपर उठाने लगी थी। इस बार जब मैंने अपने चूतड़ उछाले तो उसने अपना एक हाथ मेरे नितंबों के नीचे किया और मेरी गांड का छेद टटोलने लगा।
पहले तो मैंने सोचा कि चूत से निकला कामरज वहाँ तक आ गया होगा पर बाद में मुझे पता चला कि उसने अपनी तर्जनी अंगुली पर थूक लगा रखा था। तभी मुझे अपनी गांड पर कुछ गीला गीला सा लगा। इससे पहले कि मैं कुछ समझती उसने अपनी थूक लगी अंगुली मेरी गांड में डाल दी। उसके साथ ही मेरी हर्ष मिश्रित चीख सी निकल गई। मुझे लगा मैं झड़ गई हूँ।
‘अबे…ओ… बहन के टके… भोसड़ी के… ओह…’ ‘अरे मेरी छमिया… तेरी लाडो की तरह तेरी गांड भी कुंवारी ही लगती है?’ ‘अबे साले… मुफ्त की चूत मिल गई तो लालच आ गया क्या?’ मैंने अपनी गांड से उसकी उंगुली निकालने की कोशिश करते हुए कहा।
‘भौजी.. एक बार गांड मार लेने दो ना?’ उसने मेरे गालों को काट लिया।
‘ना…बाबा… ना… यह मूसल तो मेरी गांड को फाड़ देगा। तुमने इस चूत का तो लगता है बैंड बजा दिया है, अब गांड का बाजा नहीं बजवाऊंगी।’
मेरे ऐसा कहने पर उसने अपना लण्ड मेरी चूत से बाहर निकाल लिया। मैंने अपना सर उठा कर अपनी चूत की ओर देखा। उसकी फांकें फूल कर मोटी और लाल हो गई थी और बीच में से खुल सी गई थी। मुझे अपनी चूत के अंदर खालीपन सा अनुभव हो रहा था। मुझे बड़ी हैरानी हो रही थी उसने बीच में ही चुदाई क्यों बंद कर दी।
‘भौजी एक बार तू घुटनों के बल हो जा !’ ‘क..क्यों…?’ मैंने हैरान होते हुए पूछा।
हे झूले लाल ! कहीं यह अब मेरी गांड मारने के चक्कर में तो नहीं है। डर के मारे में सिहर उठी। मैं जानती थी मैं इस मूसल को अपनी गांड में नहीं ले पाउंगी।
‘ओहो… एक बार मैं जैसा कहता हूँ करो तो सही…जल्दी…’ ‘ना बाबा मैं गांड नहीं मारने दूंगी। मेरी तो जान ही निकल जायेगी..’
‘अरे मेरी बुलबुल ! तुम्हें मरने कौन साला देगा। एक बार गांड मरवा लो जन्नत का मज़ा आ जाएगा तुम्हें भी। सच कहता हूँ तुम्हारी कसी हुई कुंवारी गांड के लिए तो मैं मरने के बाद ही कब्र से उठ कर आ जाऊँगा..’
‘न… ना… आज नहीं… बाद में…’ मैं ना तो हाँ कर सकती थी और ना ही उसे मन कर सकती थी। मुझे डर था वो कहीं चुदाई ही बंद ना कर दे। इसलिए मैंने किसी तरह फिलहाल उससे पीछा छुड़ाया।
‘अरे मेरी सोन-चिड़ी ! मेरी रामकली ! एक बार इसका मज़ा लेकर तो देखो तुम तो इस्सस… कर उठोगी और कहोगी वंस मोर… वंस मोर…?’
‘अरे मेरे देव दास इतनी कसी हुई चूत मिल रही है और तुम लालची बनते जा रहे हो?’
‘चलो भई कोई बात नहीं मेरी बिल्लो पर उस आसान में चूत तो मार लेने दो…?’
‘ओह… मेरे चोदू-राजा अब आये ना रास्ते पर !’ मेरे होंठों पर मुस्कान फिर से लौट आई। अगले भाग में समाप्त !
[email protected] ; [email protected] धन्यवाद सहित वास्ते प्रेम गुरु आपकी स्लिमसीमा (सीमा भारद्वाज) 1721
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