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लेखिका : कामिनी सक्सेना
दिल की कोमल उमंगों को भला कोई पार कर सका है, वो तो बस बढ़ती ही जाती हैं। मैंने भी घुमा फिरा कर माँ को अपनी बात बता दी थी कि मेरी अब अब शादी करवा दो।
माँ तो बस यह कह कर टाल देती… बड़ी बेशरम हो गई है… ऐसी भी क्या जल्दी है?
क्या कहती मैं भला, अब जिसकी चूत में खुजली चले उसे ही पता चलता है ना ! मेरी उमर भी अब चौबीस साल की हो रही थी। मैंने बी एड भी कर लिया था और अब मैंने एक प्राईवेट स्कूल में टीचर की नौकरी भी करती थी। मुझे जो वेतन मिलता था… उससे मेरी हाथ-खर्ची चलती थी और फिर शादी के लिये मैं कुछ ना कुछ खरीद ही ही लेती थी। एक धुंधली सी छवि को मैं अपने पति के रूप में देखा करती थी। पर ये धुंधली सी छवि किसकी थी।
पापा ने सामने का एक कमरा मुझे दे दिया था, जो कि उन्होने वास्तव में किराये के लिये बनाया था। उसका एक दरवाजा बाहर भी खुलता था। मेरी साईड की खिड़की मेरे पड़ोसी के कमरे की ओर खुलती थी। जहाँ मेरी सहेली रजनी और उसका पति विवेक रहते थे। शायद मेरे मन में उसके पति विवेक जैसा ही कोई लड़का छवि के रूप में आता था। शायद मेरे आस-पास वो एक ही लड़का था जो मुझे बार बार देखा करता था सो शायद वही मुझे अच्छा लगने लगा था।
कभी कभी मैं देर रात को अपने घर के बाहर का दरवाजा खोल कर बहुत देर तक कुर्सी पर बैठ कर ठण्डी हवा का आनन्द लिया करती थी। कभी कभी तो मैं अपनी शमीज के ऊपर से अनजाने में अपनी चूत को भी धीरे धीरे घिसने लगती थी, परिणाम स्खलन में ही होता था। फिर मैं दरवाजा बन्द करके सोने चली जाती थी। मुझे नहीं पता था कि विवेक अपने कमरे की लाईट बन्द करके ये सब देखा करता था। मेरी सहेली तो दस बजे ही सो जाती थी।
एक बार रात को जैसे ही सोने के लिये जा रही थी कि विवेक के कमरे की बत्ती जल उठी। मेरा ध्यान बरबस ही उस ओर चला गया। वो चड्डी के ऊपर से अपना लण्ड मसलता हुआ बाथरूम की ओर जा रहा था। मैं अपनी अधखुली खिड़की से चिपक कर खड़ी हो गई। बाथरूम से पहले ही उसने चड्डी में से अपना लण्ड बाहर निकाला और उसे हिलाने लगा। यह देख कर मेरे दिल में जैसे सांप लोट गया, मैंने अपनी चूत धीरे से दबा ली। फिर वो बाथरूम में चला गया। पेशाब करके वो बाहर निकला और उसने अपना लण्ड चड्डी से बाहर निकाला और उसे मुठ्ठ जैसा रगड़ा। फिर उसने जोर से अपने लण्ड को दबाया और चड्डी के अन्दर उसे डाल दिया। उसका खड़ा हुआ लण्ड बहुत मुश्किल से चड्डी में समाया था।
मेरे दिल में, दिमाग में उसके लण्ड की एक तस्वीर सी बैठ गई। मुझसे रहा नहीं गया और मैं धीरे से वहीं बैठ गई। मैंने हौले हौले से अपनी चूत को घिसना आरम्भ कर दिया… अपनी एक अंगुली चूत में घुसा भी दी… मेरी आँखें धीरे धीरे बन्द सी हो गई। कुछ देर तक तो मैं मुठ्ठ मारती रही और फिर मेरी चूत से पानी छूट गया। मेरा स्खलन हो गया था। मैं वहीं नीचे जमीन पर आराम से बैठ गई और दोनो घुटनों के मध्य अपना सर रख दिया। कुछ देर बाद मैं उठी और अपने बिस्तर पर आकर सो गई।
सवेरे मैं तैयार हो कर स्कूल के लिये निकली ही थी कि विवेक घर के बाहर अपनी बाईक पर कहीं जाने की तैयारी कर रहा था।
“कामिनी जी ! स्कूल जा रही हैं?”
“जी हाँ ! पर मैं चली जाऊँगी, बस आने वाली है…”
“बस तो रोज ही आती है, आज चलो मैं ही छोड़ आऊँ… प्लीज चलिये ना…”
मेरे दिल में एक हूक सी उठ गई… भला उसे कैसे मना करती? मुस्करा कर मैंने उसे देखा- देखिये, रास्ते में ना छोड़ देना… मजिल तक पहुँचाइएगा !
मैंने द्विअर्थी डायलॉग बोला… मेरे दिल में एक गुदगुदी सी उठी। मैं उसकी बाईक के पास आ गई।
“ये तो अब आप पर है… कहाँ तक साथ देती हैं!”
“लाईन मार रहे हो?”
वो हंस दिया, मुझे भी हंसी आ गई। मैं उछल कर पीछे बैठ गई। उसने बाईक स्टार्ट की और चल पड़ा। रास्ते में उसने बहुत सी शरारतें की। वो बार बार गाड़ी का ब्रेक मार कर मुझे उससे टकराने का मौका देता। मेरे सीने के उभार उसके कठोर पीठ से टकरा जाते। मुझे रोमांच सा हो उठता था। अगली बार जब उसन ब्रेक लगाया तो मैंने अपने सीने के दोनों उभार उसकी पीठ से चिपका दिये।
उफ़्फ़्फ़ ! कितना आनन्द आया था। मैंने तो स्कूल पहुँचते-पहुँचते दो तीन बार अपनी चूचियाँ उसकी पीठ से रगड़ दी थी।
“दोपहर को आपको लेने आऊँ क्या?”
“अरे नहीं… सब देखेंगे तो बातें बनायेंगे… मैं बस से आ जाऊंगी।”
“तो कल सवेरे…?”
“तुम्हारे पास समय होगा?”
वो मुस्कराया और बोला- मैं सवेरे दूध लेने बूथ पर जाता हूँ… आपका इन्तज़ार कर लूंगा…
मैं उस पर तिरछी नजर डाल कर मुस्कुराई… मुझे आशा थी कि वो जरूर मेरी इस तिरछी मुस्कान से घायल हो गया होगा। मुझे लगा कि बैठे बिठाये जनाब फ़ंसते जा रहे हैं…
फिर सावधान ! मैं ही सावधान हो गई… मुझे बदनाम नहीं होना था। सलीके से काम करना था।
दूसरे दिन मैंने सावधानी से घर से बाहर निकलते ही एक कपड़ा सर पर डाल कर अन्य लड़कियों की भांति उससे चेहरा लपेट लिया… लपेट क्या लिया बल्कि कहिये कि छिपा लिया था।वो घर के बाहर बाईक पर मेरा इन्तजार कर रहा था। मैं उसके पीछे जाकर बैठ गई और अपनी दोनों चूचियाँ सावधानी से उसकी पीठ पर जानबूझ कर दबा दी। मुझे स्वयं भी बेशर्मी से ऐसा करते करते हुये जैसे बिजली का सा झटका लगा। विवेक एकदम विचलित सा हो गया।
“क्या हुआ? चलिये ना !”
मेरी गुदाज छातियों का नरम स्पर्श उसे अन्दर तक कंपकंपा गया था। उसकी सिरहन मुझे अपने तक महसूस हुई थी। उसने गाड़ी स्टार्ट की और आगे बढ़ चला। मैंने धीरे धीरे अपनी छाती उसकी पीठ से रगड़ना शुरू कर दी… क्या करूँ… दिल पागल सा जो हो रहा था। वो रास्ते भर बेचैन रहा… उसका लण्ड बेहद सख्त हो चुका था। मैंने अपना हाथ उसकी कमर से लपेट लिया था। फिर धीरे से उसके लण्ड को भी मैंने दबा सा दिया था। इतना कड़क लण्ड, मुझे लगा कि उसे मैं जोर से दबा कर उसका रस ही निकाल दूँ…
मेरा स्कूल कब आ गया मुझे पता ही ना चला।
“कामिनी जी, आपका स्कूल आ गया…”
मैं चौंक सी गई- ओह्ह ! सॉरी विवेक जी… आपका बहुत बहुत धन्यवाद…!
“सॉरी किस बात का… कामिनी जी रात को आप मिल सकेंगी…?”
“जी रात को… क्यों… मेरा मतलब है… कोई काम है क्या?”
“जी हाँ… मगर आप चाहें तो… आपकी आज्ञा चाहिये बस…!”
“कोई देख लेगा तो…? देखिये प्लीज किसी को पता ना चले…”
‘रजनी तो आज अपनी मां के घर जा रही है… घर पर तो वो नहीं है।” यह कहानी आप अन्तर्वासना.कॉंम पर पढ़ रहे हैं।
“जी ! मैं क्या कहूँ? आपकी मरजी !”
उसकी बातों में मुझे बहुत कुछ महसूस हो रहा था। मेरी सांस फ़ूल गई थी। मैं अपने आप को सम्हालते हुये स्कूल की तरफ़ बढ़ गई। मैं बार बार मुड़ कर उसे देख रही थी। वो एक टक दूर खड़ा मुझे मुस्करा कर देख रहा था।
रात के करीब ग्यारह बज रहे थे। टीवी पर रात का एक क्राईम सीरियल देख कर मैं ठण्डी हवा में कुर्सी लगा कर बैठ गई थी। बैठ क्या गई थी… आज तो मैं विवेक का इन्तज़ार कर रही थी। दिल में चोर था इसलिये मैं बार बार अपने घर के दरवाजे की ओर देख रही थी। जबकि मेरे मम्मी पापा कब के सो चुके थे। मेरे दिल की बेताबी बढ़ने लगी थी। दिल की धड़कने भी जैसे धक धक कर गले को आने लगी थी।
उफ़्फ़्फ़ ! मैंने यह क्या कर दिया… उसे मना कर दिया होता… अचानक मुझे घबराहट सी होने लगी थी। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिये था। कितनी बेवकूफ़ी लग रही थी मुझे। मैं जल्दी से उठी और अपना दरवाजा बन्द कर दिया। मेरी सांसें जोर जोर से चलने लगी थी। मैंने जल्दी से बिस्तर का आसरा लिया और लेट कर दुबक कर अपने आप को शांत करने लगी।
उफ़्फ़ ! कितनी बेवकूफ़ थी मैं जो उसे बुला लिया… । तभी धीरे से खटखट हुई… मेरा दिल एक बार फिर उछल कर जैसे हलक में आ गया। अब क्या करूँ?
“कामिनी जी… सो गई क्या?”
मुझसे रहा नहीं गया… मैं बिस्तर से धीरे से उठी और दरवाजे की ओर बढ़ चली। दरवाजे की चिटकनी खोलने के लिये जैसे ही मैंने हाथ बढ़ाया, फिर से आवाज आई- कामिनी जी, मैं विवेक…
“श्स्स्स्स्स… आ तो रही हूँ…”
मैंने धड़कते हुये दिल से दरवाजे की चिटकनी खोली और धीरे से उसे खोल दिया। विवेक जल्दी से अन्दर आ गया, दरवाजा बन्द दिया। मैं अन्धेरे में आँखें फ़ाड़े उसे एकटक देख रही थी। उसने अपनी बाहें खोल दी… मैं आगे बढ़ी और ना चाहते हुये भी उसमें समा गई। उसने प्यार से मेरे बालों को सहलाया। मुझे एक मदहोशी सी आने लगी। उसकी बाहों में एक जादू था। किसी मर्द के सामीप्य का एक अनोखा मर्दाना सुख… कैसा अलग सा होता है… स्वर्ग जैसा… ऐसा सुख जो एक मर्द ही दे सकता है। उसका सुडौल शरीर… कसा हुआ… मांसल… एक जवानी की अनोखी खुशबू… ।
“विवेक जी ! हमें ऐसा नहीं करना चाहिये… आप तो शादी…”
‘कामिनी जी… सब भूल जाईये… मेरे शादीशुदा होने से क्या फ़र्क पड़ता है…?”
“रजनी… फिर उसका क्या होगा?”
“कुछ नहीं होगा… बस तुम्हारा प्यार और आ गया है !”
उसने अपना सर झुकाया और मेरे थरथराते हुए लबों को अपने अधरों के मध्य दबा लिया। ओह्ह मां ! यह कैसा सुख !!! उसकी जीभ मेरे मुख में इधर उधर शरारत करने लगी थी… मैं मदहोश होती चली गई। तभी उसके कठोर हथेलियों का कठोर दबाव मेरे नरम गुदाज स्तनों पर होने लगा।
“नहीं… यह नहीं… आह्ह्ह्ह्ह… बस करो… विवेक… उह्ह्ह्ह”
“बहुत कठोर हैं तुम्हारे म…”
मैं इस नाजुक से हमले से सिहर सी गई। एक तेज गुदगुदी सी हुई। तभी उसकी अंगुली और अंगूठे के बीच में मेरे निप्पल मसल से गये… मेरी चूत में एक भयानक सी खुजली उठने लगी। शायद चूत में से पानी रिसने लगा था। मैंने नशे की सी हालत में विवेक को झटक सा दिया… परिणाम स्वरूप वो मुझसे अलग हो गया।
“विवेक प्लीज… मुझे बेहाल मत करो… आओ… बिस्तर पर लेटते हैं… फिर दिल की बातें करते हैं !!”
“क्यूँ आनन्द नहीं आया क्या?”
“प्लीज… ऐसे नहीं… बस बातें करो… अच्छी अच्छी… प्यार भरी… बस ! ये छुआछूई मत करो…”
मैंने उसे कुछ भी करने से रोक दिया… बस उसे लेकर बिस्तर पर लेट गई। उसे चित लेटा कर उसकी छाती पर मैंने अपना सर रख दिया। और उसके बदन को सहलाने लगी… दबाने लगी।
कामिनी सक्सेना
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