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मेरी शादी हुए दो साल हो चुके हैं। मेरी पढ़ाई बीच में ही रुक गई थी। मेरे पति बहुत ही अच्छे हैं, वो मेरी हर इच्छा को ध्यान में रखते हैं। मेरी पढ़ाई की इच्छा के कारण मेरे पति ने मुझे कॉलेज में फिर से प्रवेश दिला दिया था। उन्हें मेरे वास्तविक इरादों का पता नहीं था कि इस बहाने मैं नए मित्र बनाना चाहती हूँ। मैं कॉलेज में एडमिशन लेकर बहुत खुश हूँ। मेरे पति बी.एच.ई.एल. में कार्य करते हैं। उन्हें कभी कभी उनके मुख्य कार्यालय में कार्य हेतु शहर भी बुला लिया जाता है। उन दिनों मुझे बहुत अकेलापन लगता है। कॉलेज जाने से मेरी पढ़ाई भी हो जाती है और समय भी अच्छा निकल जाता है। धीरे धीरे मैंने अपने कई पुरुष मित्र भी बना लिए हैं।
कई बार मेरे मन में भी आता था कि अन्य लड़कियों की तरह मैं भी उन मित्रों लड़को के साथ मस्ती करूँ, पर मैं सोचती थी कि यह काम इतना आसान नहीं है। ऐसा काम बहुत सावधानी से करना पड़ता है, जरा सी चूक होने पर बदनामी हो जाती है। फिर क्या लड़के यूँ ही चक्कर में आ जाते है, हाँ, लड़के फ़ंस तो जाते ही है। छुप छुप के मिलना और कहीं एकान्त मिल गया तो पता नहीं लड़के क्या न कर गुजरें। उन्हें क्या… हम तो चुद ही जायेंगी ना। आह!
फिर भी जाने क्यूँ कुछ ऐसा वैसा करने को मन मचल ही उठता है, शायद नए लण्ड खाने के विचार से। लगता है जवानी में वो सब कुछ कर गुजरें जिसकी मन में तमन्ना हो। पराये मर्द से शरीर के गुप्त अंगों का मर्दन करवाना, पराये मर्द का लण्ड मसलना, मौका पाकर गाण्ड मरवाना, प्यासी चूत का अलग अलग लण्डों से चुदवाना… फिर मेरे मस्त उभारों का बेदर्दी से मर्दन करवाना…
धत्त! यह क्या सोचने लगी मैं? भला ऐसा कहीं होता है? मैंने अपना सर झटका और पढ़ाई में मन लगाने की कोशिश करने लगी। पर एक बार चूत को लण्ड का चस्का लग जाए तो चूत बिना लण्ड लिए नहीं मानती है, वो भी पराये मर्दों के लिए तरसने लगती है, जैसे मैं… अब आपको कैसे समझाऊँ, दिल है कि मानता ही नहीं है। यह तो आप सभी ही समझते हैं।
मेरी कक्षा में एक सुन्दर सा लड़का था, उसका नाम संजय था, जो हमेशा पढ़ाई में अव्वल आता था। मैंने मदद के लिए उससे दोस्ती कर ली थी। उससे मैं नोट्स भी लिया करती थी।
एक बार मैं संजय से नोट्स लेकर आई और उसे मैंने मेज़ पर रख दिए। भोजन वगैरह तैयार करके मैं पढ़ने बैठी। कॉपी के कुछ ही पन्ने उलटने के बाद मुझे उसमें एक पत्र मिला। उसे देखते ही मेरे शरीर में एक झुरझुरी सी चल गई। क्या प्रेम पत्र होगा… जी हाँ… संजय ने वो पत्र मुझे लिखा था। मेरा मन एक बार तो खुशी से भर गया।
जैसा मैंने सोचा था… उसमें उसने अपने प्यार का इज़हार किया था। बहुत सी दिलकश बातें भी लिखी थी। मेरी सुन्दरता और मेरी सेक्सी अदाओं के बारे में खुल कर लिखा था। उसे पढ़ते समय मैं तो उसके ख्यालों में डूब गई। मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि कोई मुझसे प्यार करने लगेगा और यूँ पत्रों के द्वारा मुझे अपने दिल की बात कहेगा।
मेरे जिस्म में खलबली सी मचने लगी। चूत में मीठा सा रस निकल आया। फिर मुझे लगा कि मेरे दिल में यह आने लगा… मैं तो शादीशुदा हूँ, पराये मर्द के बारे में भला कैसे सोच सकती हूँ। पर हे राम, इस चूत का क्या करूँ। वो पराया सा भी तो नहीं लग रहा था।
तभी अचानक घर की घण्टी बजी। बाहर देखा तो संजय था… मेरा दिल धक से रह गया। यह क्या… यह तो घर तक आ गया, पर उसके चेहरे पर हवाईयाँ उड़ रही थी।
‘क्या हुआ संजय?’ मैं भी उसके हाल देख कर बौखला गई। ‘वो नोट्स कहाँ हैं शीला?’ उसने उखड़ती आवाज में कहा। ‘वो रखे हुए हैं… क्यों क्या हो गया?’
वो जल्दी से अन्दर आ गया और कॉपी देखने लगा। जैसे ही उसकी नजर मेज़ पर रखे पत्र पर पड़ी… वो कांप सा गया। उसने झट से उसे उठा लिया और अपनी जेब में रख लिया।
‘शीलू, इसे देखा तो नहीं ना…?’ ‘हाँ देखा है… क्यूँ, क्या हुआ…? अच्छा लिखते हो!’ ‘सॉरी… सॉरी… शीलू, मेरा वो मतलब नहीं था, ये तो मैंने यूँ ही लिख दिया था।’ उसका मुख रुआंसा सा हो गया था। ‘इसमें सॉरी की क्या बात है… तुम्हारे दिल में जो था… बस लिख दिया… अच्छा लिखा था… कोई मेरी इतनी तारीफ़ करे… थैंकयू यार, मुझे तो बहुत मजा आया अपनी तारीफ़ पढ़कर!’ ‘सॉरी… शीला!’ उसे कुछ समझ में नहीं आया। वो सर झुका कर चला गया।
मैं उसके भोलेपन पर मुस्करा उठी। उसके दिल में मेरे लिए क्या भावना है मुझे पता चल गया था। रात भर बस मुझे संजय का ही ख्याल आता रहा। हाय राम, कितना कशिश भरा था संजय… काश! वो मेरी बाहों में होता। मेरी चूत इस सोच से जाने कब गीली हो गई थी।
संजय ने मेरे स्तन दबा लिए और मेरे चूतड़ो में अपना लण्ड घुस दिया। मैं तड़प उठी। वो मुझसे चिपका जा रहा था, मुझे चुदने की बेताबी होने लगी। ‘क्या कर रहे हो संजू… जरा मस्ती से… धीरे से…’
मैंने घूम कर उसे पकड़ लिया और बिस्तर पर गिरा दिया। उसका लण्ड मेरी चूत में घुस गया। मेरा शरीर ठण्ड से कांप उठा। मैंने उसके शरीर को और जोर से दबा लिया। मेरी नींद अचानक खुल गई। जाने कब मेरी आँख लग गई थी… ठण्ड के मारे मैं रज़ाई खींच रही थी… और एक मोहक सा सपना टूट गया। मैंने अपने कपड़े बदले और रज़ाई में घुस कर सो गई। सवेरे मेरे पति नाईट ड्यूटी करके आ चुके थे और वो चाय बना रहे थे। मैंने जल्दी से उठ कर बाकी काम पूरा किया और चाय के लिए बैठ गई।
कॉलेज में आज संजय मुझसे दूर-दूर भाग रहा था, पर कैन्टीन में मैंने उसे पकड़ ही लिया। उसकी झिझक मैंने दूर कर दी। मेरे दिल में उसके लिए प्रेम भाव उत्पन्न हो चुका था। वो मुझे अपना सा लगने लगा था। मेरे मन में उसके लिए भावनाएँ पैदा होने लगी थी। ‘मैंने आप से माफ़ी तो मांग ली थी ना?’ उसने मायूसी से सर झुकाए हुए कहा। ‘सुनो संजय, तुम तो बहुत प्यारा लिखते हो, लो मैंने भी लिखा है, देखो अकेले में पढ़ना!’ मैंने उसकी ओर देख कर शर्माते हुए कहा।
उसे मैंने एक कॉपी दी, और उठ कर चली आई। काऊन्टर पर पैसे दिए और घूम कर संजय को देखा। वो कॉपी में से मेरा पत्र निकाल कर अपनी जेब में रख रहा था। हम दोनों की दूर से ही नजरें मिली और मैं शर्मा गई।
उसमें मर्दानगी जाग गई… और फिर एक मर्द की तरह वो उठा और काऊन्टर पर आकर उसने मेरे पैसे वापस लौटाए औए स्वयं सारे पैसे दिए। मैं सर झुकाए तेजी से कक्षा में चली आई। पूरा दिन मेरा दिल कक्षा में नहीं लगा, बस एक मीठी सी गुदगुदी दिल में उठती रही। जाने वो पत्र पढ़ कर क्या सोचेगा।
रात को मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई, मैं अनमनी सी हो उठी। हाय… उसे मैंने रात को क्यों बुला लिया? यह तो गलत है ना! क्या मैं संजय पर मरने लगी हूँ? क्या यही प्यार है? हाय! वो पत्र पढ़ कर क्या सोचेगा, क्या मुझे चरित्रहीन कहेगा? या मुझे भला बुरा कहेगा। जैसे जैसे उसके आने का समय नजदीक आता जा रहा था, मेरी दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी। मुझे लगा कि मैं पड़ोसी के यहाँ भाग जाऊँ, दरवाजा बन्द देख कर वह स्वतः ही चला जायेगा। बस! मुझे यही समझ में आया और मैंने ताला लिया और चल दी।
कहानी जारी रहेगी! [email protected]
बेचैन निगाहें-2
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