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प्रेषक : दीवाना “अजनबी”
बहुत अँधेरा है कमरे में रौशनी कर दो ,
उतार दो यह पैराहन, चांदनी कर दो .
चली भी आओ मैं जकड़ूँगा तुम को बाँहों से ,
मैं पीना चाहता हूँ आज बस निगाहों से .
दिखा के अपना हुस्न मेरे होश गुम कर दो ,
कि आज प्यार की पहली पहल भी तुम कर दो .
चले भी आओ तड़प के हमारी बाँहों में ,
कि अपनी सांस मिला दो हमारी सांसों में .
मेरे जलते हुए होठों पे अपने लब रख दो ,
उतार दो ये कपडे पलंग पे सब रख दो .
मैं अपने लबों को रख दूँ तेरे रुखसारों पे ,
और अपने हाथ फिराऊँ तेरे उभारों पे .
तुझे सर से पाँव तक मैं चूमता ही रहूँ ,
तेरे कंधे , तेरी छाती को चूसता ही रहूँ .
मैं चाहता हूँ छेड़ना तेरे तेरे अंगारों को ,
दबा के चूस के पी लूँगा इन उभारों को .
तेरा वोह अंग जो दुनिया में सब से प्यारा है ,
मैं उसे जीभ से चाटूं तेरा इशारा है .
फिरा के हाथ बदन पे मैं सज़ा दूँ तुझको ,
फिर अपनी जीभ से ज़न्नत का मज़ा दूँ तुझको .
मेरे लिए भी तो यह काम एक बार करो ,
मुंह में लेके चूसो इसे और प्यार करो .
फिर आओ इसके बाद एक हो जाएँ हम तुम ,
मुझे अपने बदन में पूरा समा लेना तुम .
और इस खेल में आखिर में वोह मुकाम आये ,
मेरे बदन में जो भी कुछ है तेरे काम आये .
चले आओ मेरी खुशियों को सौ गुणी कर दो ,
बहुत अँधेरा है कमरे में रौशनी कर दो . “”
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