हवसनामा: सुलगती चूत-1

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‘हवसनामा’ के अंतर्गत मैं यह तीसरी कहानी लिख रहा हूँ पारूल नाम की एक चौबीस वर्षीय महिला की, जिसके जीवन में सेक्स की कितनी अहमियत थी, यह उससे बेहतर कोई नहीं समझ सकता था और सालों साल इसके लिये तड़पने के बाद आखिर एक दिन उसने इसे हासिल भी किया तो बस एक मौके के तौर पर … आगे की कहानी खुद पारुल के अपने शब्दों में।

दोस्तो, मैं एक शादीशुदा चौबीस वर्षीय युवती हूँ और मुंबई के एक उपनगर में रहती हूँ। अपनी पहचान नहीं जाहिर करना चाहती इसलिये नाम भी सही नहीं बताऊंगी और स्थानीयता भी। बाकी पाठकों को इससे कुछ लेना देना भी नहीं होना चाहिये। जो है वह मेरी कहानी में है और वही महत्वपूर्ण है।

सेक्स … आदिमयुग से लेकर आज तक, कितनी सामान्य सी चीज रही है जनसाधारण के लिये। लगभग सबको सहज सुलभ … हम जैसे कुछ अभागों वंचितों को छोड़ कर। यह शब्द, यह सुख, यह जज्बात मेरे लिये क्या मायने रखते हैं मैं ही जानती हूँ। राह चलते फिकरों में, गालियों में इससे जुड़े लंड, बुर, लौड़ा, चूत, चुदाई जैसे शब्द कानों में जब तब पड़ते रहे हैं और जब भी पड़ते हैं, मन हमेशा भटका है। हमेशा उलझा है अहसास की कंटीली झाड़ियों में।

एक मृगतृष्णा सी तड़पा कर रह गयी है। न चाहते हुए भी एक अदद लिंग को तरसती अपनी योनि की तरफ ध्यान बरबस ही चला जाता है जो क्षण भर के संसर्ग की कल्पना भर में गीली होकर रह जाती है और फिर शायद अपने नसीब पर सब्र कर लेती है। कितने किस्मत वाले हैं वह लोग जिन्हें यह विपरीतलिंगी संसर्ग हासिल है. हमेशा एक चाह भरी खामोश ‘आह’ होंठों तक आ कर दम तोड़ गयी है।

जब अपने घर में थी तब कोई तड़प न थी, कोई भूख न थी, कोई तृष्णा न थी. बस संघर्ष था जीवन को संवारने का, इच्छा थी कुछ उन लक्ष्यों को हासिल करने की जो निर्धारित कर रखे थे अपने घर के हालात को देखते हुए।

मैं एक टिपिकल महाराष्ट्रियन परिवार से ताल्लुक रखती हूँ। दिखने में भले बहुत आकर्षक न होऊं लेकिन ठीकठाक हूँ, रंगत गेंहुआ है और फिगर भी ठीक ठाक ही है. परिवार में पिता निगम में निचले स्तर का कर्मचारी था और एक नंबर का दारूबाज था और मां इधर उधर कुछ न कुछ काम करती थी। म्हाडा के एक सड़ल्ले से फ्लैट में हम छः जन का परिवार रहता था। एक आवारा भाई सहित हम तीन बहनें. एक निम्नतर स्तर के जीवन को जीते हुए इसके सिवा हमारे क्या लक्ष्य हो सकते थे कि हम पढ़ लिख कर किसी लायक हो जाये और इसके लिये कम संघर्ष नहीं था।

हमें खुद ट्यूशन पढ़ाना पढ़ता था कि कुछ अतिरिक्त आय हो सके क्योंकि पढ़ाई के लिये भी पैसा चाहिये था। बहरहाल ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई जैसे तैसे हो पाई कि बड़ी होने के नाते बाईस साल की उम्र में हमें एक खूंटे से बांध दिया गया। वह तो हमें बाद में समझ आया कि बिना दान दहेज इतनी आसानी से हमारी शादी हो कैसे गयी।

पति एक नंबर का आवारा, कामचोर और शराबी था. भले अपने घर का अकेला था लेकिन जब किसी लायक ही नहीं था तो लड़की देता कौन? हम तो बोझ थे तो एक जगह से उतार कर दूसरी जगह फेंक दिये गये। ससुर रिटायर्ड कर्मचारी थे और अब पार्ट टाईम कहीं मुनीमी करते थे तो घर की गुजर हो रही थी। लड़का इधर उधर नौकरी पे लगता लेकिन चार दिन में या खुद छोड़ देता या आदतों की वजह से भगा दिया जाता। घरवालों ने सोचा था कि शादी हो जायेगी तो सुधर जायेगा लेकिन ऐसा कुछ होता हमें तो दिखा नहीं।

फिर भी अपना नसीब मान के हम स्वीकार कर लिये और तब असली समस्या आई। पत्नी का मतलब चौका बर्तन साफ सफाई और साज श्रृंगार ही तो नहीं होता। रात में पति का प्यार भी चाहिये होता है, मर्दाना संसर्ग भी चाहिये होता है और वह तो इस मरहले पर एकदम नकारा साबित हुआ। बाजारू औरतों और नशेबाजी के चक्कर में वह बेकार हो चुका था, उसका ठीक से ‘खड़ा’ भी नहीं होता था और जो थोड़ा बहुत होता भी था तो दो चार धक्कों में ही झड़ जाता था।

शादी के बाद पहली बार जिस्म की भूख समझ में आई. मैंने उसे प्यार से संभालने और कराने की कोशिश की लेकिन बिना नशे के भी वह नकारा साबित हुआ। उस पर तो वियाग्रा टाईप कोई दवा भी कारगर साबित नहीं होती थी और मैं इसका इलाज करने को बोलती तो मुझे मारने दौड़ता कि किसी को पता चल गया तो उसकी क्या इज्जत रह जायेगी।

जैसे तैसे तो वह मेरी योनि की झिल्ली तक पहुंच पाया था लेकिन कभी चरम सुख न दे पाया। उसके आसपास भी न पहुंचा पाया और मेरी तड़प और कुंठा अक्सर झगड़े का रूप ले लेती थी जिससे उसकी सेक्स में अयोग्यता का पता बाहर किसी को चलता न चलता पर घर में सास ससुर को तो चल ही गया था। वह बेचारे भी क्या कर सकते थे।

अपनी नाकामी से मुंह छुपाने के लिये वह रात को नशे में ही लौटता कि बिस्तर में गिरते ही टुन्न हो जाये और मैं सहवास के लिये उसका गला न पकड़ सकूँ। लेकिन यह तो वह आग है जो जितना दबाने की कोशिश की जाये, उतना ही भड़कती है। गीली लकड़ी की तरह सुलगते चले जाना कहीं न कहीं आपको बगावत पर उतारू कर ही देता है। मैंने एक कोशिश घर से बाहर की जो परवान तो न चढ़ी लेकिन उसे पता चल गया और उसने अपने लफंगे दोस्तों के साथ उस युवक को ऐसा पीटा कि उसने मुझसे खुद ही कन्नी काट ली।

उसके पीछे मुझे भी धमकाया लेकिन मुझ पर खैर क्या फर्क पड़ना था. मैंने तो दिन दहाड़े ही दरवाजा बंद किया और कपड़े उतार के नंगी लेट गयी उसे चैलेंज करती कि तो आओ और मेरी भूख शांत कर दो। उसे पता था यह उसके बस का था नहीं … गालियां बकता बाहर निकल गया। बाहर सास सब सुन रही थीं लेकिन उनके बोलने के लिये कुछ था ही नहीं और उस दिन मैंने पूरी बेशर्मी से उन्हें सुनाते हुए उंगली से अपना योनिभेदन करते चर्मोत्कर्ष तक पहुंची कि वह मेरी हालत समझें तो सही।

इसके बाद कोई और विकल्प न देख मैंने सब्र ही कर लिया और अपने हाथ से ही अपनी चुल शांत कर लेती लेकिन मर्दाना संसर्ग तो अलग ही होता है, चाहे कैसा भी हो।

धीरे-धीरे फोन से दिल बहलाने लगी. मार्केट में जियो क्या आया, कम से कम एक विकल्प तो और खुल गया। न सिर्फ अंतर्वासना पे पोर्न साहित्य पढ़ती बल्कि देर रात तक पोर्न मूवीज देखती रहती। इच्छायें जितनी दबाई जायें, वे उतनी ही बलवती होती हैं और जब इंसान के तेवर बगावती हों तो इंसान अंतिम हद तक जाने की ख्वाहिश करने लगता है।

मुझे सच में तो कुछ भी नहीं हासिल था, कल्पनाओं में अति को छूने लगी। जो वर्जित हो, घृणित हो, अतिवाद हो, वह सब मुझमें आकर्षण पैदा करने लगा। मैंने शादी से पहले कभी कोई अश्लील बात शायद ही की हो लेकिन अब तो जी चाहता कि कोई मर्द मुझसे हर पल अश्लील से अश्लील बातें करें … मेरे साथ क्रूर व्यवहार करे … क्रूरतम संभोग करे … मुझे गालियां दे … गंदी-गंदी गालियां दे … मेरे होंठों को ऐसे चूसे कि खून निकाल दे।

मेरे कपड़े फाड़ कर मुझे नंगा कर दे … मेरे वक्षों को बेरहमी से मसले, मेरे चूचुकों को दांतों से काटे, मेरे नितंबों को तमांचे मार-मार के लाल कर दे. मैं उसके मुंह पर अपनी योनि रगड़ूं, वह जीभ से खुरच दे मेरे दाने को, खींच डाले मेरी कलिकाओं को और मैं उसके मुंह पर स्क्वर्ट करूँ. वह सब पी जाये और फिर मेरे बाल पकड़ कर, मुझे गालियां देते, पूरी बेरहमी से अपना मूसल जैसा लिंग मेरी कसी हुई योनि में उतार कर फाड़ दे मेरी योनि को। मैं चीखती चिल्लाती रहूं और वह पूरी बेरहमी से धक्के लगाते मेरी योनि का कचूमर बना दे। एकदम सख्त क्रूर मर्द बन कर मुझे एक दो टके की रंडी बना के रख दे। धीरे-धीरे सुलगती आकांक्षायें यूं ही और आक्रामक होती गयीं।

सुलगना क्या होता है यह कोई मुझसे पूछे. साल भर इसी तरह तड़पते सुलगते गुजर गया। बस फोन, पोर्न और अपनी उंगली का ही सहारा था। वह नामर्द तो कभी बहुत उकसाने पर चढ़ता भी था तो योनि गर्म भी नहीं हो पाती थी कि बह जाता था. फोरप्ले तो उसके बस का था ही नहीं और मैं तड़पती सुलगती और उसे गालियां देती रह जाती थीं।

साल भर बाद मैंने कोई भी नौकरी करने की ठानी. उसी नामर्द ने विरोध किया लेकिन सास ससुर चुपचाप मान गये। बेटे को लेकर जो उम्मीदें उन्होंने बांधी थीं, वह साल भर में खत्म हो चुकी थीं और अब मुझे रोकने का कोई मतलब नहीं था। या बेटा कमाये या बहू, और बेटा तो ढर्रे पे आता लगता नहीं था तो अंततः मुझे नौकरी की स्वीकृति मिल गयी।

ससुर जी की वजह से ही मुझे सीएसटी की तरफ एक नौकरी मिल गयी, जो थोड़ी टफ इसलिये थी कि सुबह सात बजे से शुरू होती थी और चार बजे वापसी होती थी लेकिन आने जाने के लोकल के पास सहित बारह हजार इतने कम भी नहीं थे तो शुरुआत यहीं से सही।

इसके लिये सुबह जल्दी उठना पड़ता था, नाश्ता बना के और अपने दोपहर के लिये कुछ खाने को बना कर सात बजे हार्बर लाईन की लोकल पकड़ कर निकल लेती थी। अब सुबह जो इस लाईन पे चलता है उसे लाईन के आसपास के नजारे तो पता ही होंगे. आखिर किसी अंग्रेज ने इसी आधार पर तो भारत को एक वृहद शौचालय की संज्ञा दी थी।

आपको दोनों तरफ जगह-जगह शौच करते लोग दिखते हैं और कमबख्त बेशर्म भी इतने होते हैं कि रुख ट्रेन की ओर ही किये रहते हैं। यह स्थिति भले दूसरी औरतों के लिये असुविधाजनक होती हो लेकिन मेरे जैसी तरसती औरत के लिये तो बेहद राहत भरी थी। सुबह सवेरे मुर्झाये, अर्ध उत्तेजित और उत्तेजित लिंगों के दर्शन हो जाते थे। छोटे, मध्यम आकार के और बड़े-बड़े भी।

मैं लेडीज डिब्बे में ही बैठती थी और बाकी भले नजरें चुराती हों लेकिन मैं बड़ी दिलचस्पी से उन शौच करते लोगों को देखती थी और उनके लिंग मेरे मन में एक गुदगुदी मचा देते थे। अक्सर मेरी योनि पनिया जाती थी और होंठ शुष्क हो जाते थे. तो बाद में योनि में रुई फंसा कर घर से निकलती थी जो अपने अड्डे पर पहुंचते ही जब निकालती थी तो भीगी हुई मिलती थी।

नौकरी स्वीकार करते वक्त मन में एक उम्मीद यह भी रहती थी कि शायद वहां कोई जुगाड़ बन जाये और मेरी तरसती सुलगती योनि को एक अदद कड़क लिंग मिल जाये लेकिन वहां मालिक उम्रदराज थे और ससुर के परिचित होने की वजह से मुझे घर की लड़की जैसे समझ के नजर भी रखते थे और काम में टच में आने वाले जो लोग थे, उनसे भी इसी वजह से ऐसी कंटीन्युटी बन पाने की उम्मीद बनती लगती नहीं थी।

ले दे के बस उन लिंगों के दर्शन का ही सहारा था जो सुबह सवेरे दिखते थे। रोज-रोज देखते कुछ चेहरे पहचान में आने लगे थे। अपना तो एक फिक्स टाईम था और शायद उन्हें भी नियत समय पर कहीं जाना होता हो। उनमें से कुछ के लिंग सामान्य थे लेकिन कुछ के हैवी जो मुंह में पानी भर देते थे और मन में एक अजब सी गुदगुदाहट भर देते थे। मैं जानबूझकर उनसे आंखें मिलाती थी कि वे मुझे पहचान लें. शायद किसी मोड़ पर मिल ही जायें तो कुछ कहने सुनने की जरूरत तो नहीं रहेगी।

चार महीने यूँ ही गुजर गये और उन नियमित लोगों से निगाहों का एक परिचय बन गया। जिनके लिंग हैवी थे, उनके लिंग की तारीफ भी आंखों ही आंखों में कर जाती थी कि वे समझ लें और चूँकि बेचारे चूँकि शौच कर रहे होते थे तो शर्मा कर रह जाते थे लेकिन देखने दिखाने की दिलचस्पी में निगाहें भी ट्रेन की दिशा में गड़ाये रहते थे।

रात को उन्हीं को याद करके कल्पना करती थी बेहद आक्रामक संभोग की और जब तक स्खलित न हो जाती थी, नींद ही नहीं आती थी और रोज भगवान से प्रार्थना करती थी कि उनमें से कोई तो कहीं टकरा जाये।

इसी तड़पन के साथ दो महीने और गुजर गये, निगाहों का परिचय और गहरा हो गया लेकिन संपर्क का कोई माध्यम मेरी समझ में न आ पाया। कभी-कभी दिल करता कि पास के स्टेशन पर उतर जाऊँ और वापस चली आऊं जहां पसंदीदा मर्दों में से कोई बैठा हग रहा होता था, लेकिन स्त्री तो स्त्री … बगावत अपनी जगह लेकिन ऐसे कदम उठाने के लिये जो साहस चाहिये वह मुझमें नहीं था।

फिर एक आइडिया सूझा … ड्राईक्लीनर्स वगैरह के यहां जो कपड़ों की पहचान के लिये कागज के टैग लगाते हैं। वे थोड़े खरीद लिये और उन पर अपना नंबर लिख के रख लिया।

अपने स्टेशन से सीएसटी तक करीब आठ ऐसे मर्द थे जिनसे निगाहों का परिचय बन चुका था। वे देख के ही उत्तर भारतीय लगते थे. उनके लिंग बड़े थे और आकर्षक थे और यही हमारे परिचय का आधार थे। शुरु में तो यह होता था कि वे रोज नहीं दिखते थे, बल्कि कभी कोई दिखता तो कभी कोई. लेकिन फिर शायद उन्होंने मेरी निगाहों की भूख समझ ली तो वे भी ट्रेन की टाईमिंग के हिसाब से ही शौच के लिये आने लगे। ट्रेन आगे पीछे हो जाती थी लेकिन उन्हें कौन सा कहीं ऑफिस जाना था तो बैठे रहते।

मैं खास उन लोगों के लिये अपने हाथ में आठ ऐसे टैग दबाये खिड़की के पास बैठी रहती और जब सामना होता तो चुपके से एक टैग गिरा देती।

यहां यह बता दूँ कि इस सिलसिले की शुरुआत भले लेडीज कोच से हुई हो लेकिन हमेशा विंडो सीट मिलनी पॉसिबल नहीं होती थी तो विंडो सीट के चक्कर में मैं बाद में जनरल डिब्बे में भी बैठ जाती थी और चूँकि जहां से मुझे चलना होता था, वहीं से ट्रेन भी चलती थी तो ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि मुझे उस खास साईड में विंडो सीट न मिली हो।

बहरहाल, अंततः कई दिन के बाद मेरा यह प्रयास रंग लाया. हालाँकि बीच में कुछ और फालतू फोन भी आये जिन्होंने मेरा नंबर उसी टैग से लिया था लेकिन वे मेरे परिचय वाले न साबित हुए तो मैंने बात बढ़ानी ठीक न समझी। क्या पता कौन हो कैसा हो.

लेकिन फिर एक फोन वह भी आया जिसके लिये मैंने टैग गिराया था। थोड़ी सी पहचान बताने पर मैंने उसे पहचान लिया और चार बजे सीएसटी स्टेशन पर मिलने को कहा।

जरूर काम धंधे वाला बंदा रहा होगा लेकिन औरत का चक्कर जो न कराये। बेचारा अपने हिसाब से तैयार होकर चार बजे सीएसटी पहुंच गया जहां मैंने बताया था। पहचानने में कोई दिक्कत न हुई

उसने अपना नाम रघुबीर बताया, पूर्वी उत्तरप्रदेश का रहने वाला था और यहां दादर में रेहड़ी लगाता था। था तो शादीशुदा मगर बीवी बच्चे गांव में थे और किसी भी औरत के लिये अवलेबल था। मुझे कौन सी उससे यारी करनी थी। हालाँकि मैंने क्लियर कर दिया कि उसकी सेवा के बदले मैं कुछ पे कर पाने की स्थिति में नहीं हूँ और जगह का इंतजाम भी उसे ही करना होगा। मैं बस आ सकती हूँ और दूसरे कि वह दिन के सिवा कभी फोन नहीं करेगा।

वह दो दिन का वक्त ले कर चला गया।

इस बीच और भी कुछ फोन आये जो काम के न साबित हुए लेकिन दो दिन बाद रघु का फोन आया कि जगह का इंतजाम हो गया है. इतना सुन कर ही मेरी योनि ने एकदम से पानी छोड़ दिया।

उसने मुझे बांद्रा स्टेशन पर दो बजे मिलने को कहा और मेरे लिये यह कोई मुश्किल नहीं था क्योंकि मैं अमूमन छुट्टी नहीं लेती थी तो आज मुझे मना करने का सवाल ही नहीं था। मैं सवा बजे रवाना हुई और दो बजे बांद्रा स्टेशन पे पहुंच गयी, जहां वह मुझे इंतजार करता मिला।

वहां से वह मुझे ऑटो से रेलवे कालोनी ले आया, जहां एक बिल्डिंग के वन बेडरूम वाले फ्लैट तक ले कर इस अंदाज में पहुंचा जैसे हम पति पत्नी हों और किसी रिलेटिव के यहां मिलने आये हों। इस बीच स्टोल से चेहरा मैंने कवर ही कर रखा था कि कोई कहीं पहचान वाला मिल भी जाये तो पहचान न सके।

उस फ्लैट में एक युवक और मौजूद था. रघु ने बताया कि वह उसका गांव वाला था और यहां दो पार्टनर्स के साथ रहता था, लेकिन फिलहाल वे दोनों मुलुक गये हुए थे तो वह अकेला ही था और अपनी जगह हमें देने को तैयार था लेकिन उसकी बस अकेली यही शर्त थी कि वह भी हिस्सेदारी निभायेगा।

आम हालात में यह शर्त भले जलील करने वाली लगती लेकिन फिलहाल तो मैं इतना तड़पी तरसी और भूखी थी कि उसके दोनों पार्टनर्स और भी होते और वे भी हिस्सेदारी मांगते तो भी मैं इन्कार न करती, उल्टे यही कहती कि सब मिल कर मुझ पर टूट पड़ो और मेरी इज्जत की बखिया उधेड़ कर रख दो। चूत की भूख क्या होती है, यह मुझसे बेहतर कौन समझ सकता था।

प्रत्यक्षतः मैंने थोड़े सोच विचार के बाद हामी भर दी।

दोपहर का टाईम था, आसपास भी सन्नाटा ही था। उसके दोस्त जिसका नाम राजू था, ने बताया कि आसपास भी सब काम वाले लोग ही रहते थे उस फ्लोर पे और इस वक्त कोई नहीं था।

बेडरूम में पहुंचते ही मैंने न सिर्फ स्टोल उतार फेंका बल्कि अपने ऊपरी कपड़े भी साथ ही उतार दिये। यहां योनि में आग लगी हुई थी, इतनी देर में ही सोच-सोच के बह चली थी कि आज उसे खुराक मिलेगी। कब से अपनी उत्तेजना को मैं दबाये थी।

भाड़ में गयी स्त्रीसुलभ लज्जा, भाड़ में गयी मर्यादायें … सहवास के नाजुक पलों में सिकुड़ना, सिमटना, स्वंय पहल न करना, यह सारे तय नियम अब मेरे लिये कोई मायने नहीं रखते थे। एक जवान जनाना बदन के अंदर कैद औरत जो जाने कब से पुरुष संसर्ग के लिये तड़प रही थी, सुलग रही थी… उसने जैसे खुद को एकदम आजाद कर दिया था। हर बंधन से मुक्त कर लिया था।

बस मैं उस क्षण खुद को औरत महसूस करना चाहती थी… सिर्फ औरत, जिसके सामने दो मर्द मौजूद थे जिनके गर्म कड़े कठोर उत्तेजित लिंग मेरी उस तृष्णा को मिटा सकते थे जो अब नाकाबिले बर्दाश्त हो चली थी।

क्रमशः

इस सीरीज के अंतर्गत मैं कुछ चुनिंदा पाठकों की कहानियाँ लिख रहा हूँ जो थोड़ी हट कर हैं और रूचिकर हैं। अगर आपके पास भी कोई ऐसी कहानी है जो आप इस मंच से शेयर करना चाहते हैं लेकिन किसी वजह से सक्षम नहीं तो मुझे मेल या फेसबुक पर बता सकते हैं। दोनों पते नीचे दे रहा हूं..

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