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दोस्तो, आपने मेरी पिछली कहानी होली के बाद की रंगोली को पसंद किया और कई लोगों ने आग्रह किया था कि इसके आगे भी कहानी लिखी जाए और उनमें भाई-बहन के अलावा माँ को भी शामिल किया जाए। आगे की कहानी को बिना किसी उचित पृष्ठभूमि के लिखना शायद सही नहीं होता क्योंकि जिन पात्रों को उसमें सम्मिलित करने का अनुरोध किया गया था उनका केवल परिचय मात्र देना पर्याप्त नहीं होता।
यह ज़रूरी था कि उनका चरित्र और उनकी आकाँक्षाओं को भी समझा जाए ताकि वो जो भी करें वो स्वाभाविक लगे। इन चरित्रों का उनके मूलरूप के साथ परिचय इसलिए भी ज़रूरी था ताकि वो केवल लेखक की हवस के धागों पर नाचती हुई कठपुतलियां न लगें।
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए पहले उस कहानी का पूर्वार्ध (Prequel) प्रस्तुत कर रहा हूँ। उसके बाद मूल कहानी के प्रथम भाग को पुनः प्रस्तुत करूँगा क्योंकि मूल कहानी का पहला भाग, जिसे पंकज सिंह ने लिखा था, उसकी शैली और प्रस्तुतीकरण शेष कहानी से मेल नहीं खाता।
उत्तरार्ध (Sequel) में मूल कहानी को आगे बढ़ाया जाएगा लेकिन वो काफी बाद की बात है उसे भविष्य के लिए छोड़ देते हैं और अभी इतिहास के पन्ने पलटते हैं।
बात 1977 की है जब भारत के उत्तरी भाग के किसी गाँव में दो परिवार रहते थे। पड़ोसी तो वो थे ही लेकिन एक और बात थी, जो उनमें समान थी या शायद असामान्य थी; वो यह कि दोनों परिवारों में दो-दो ही सदस्य थे। एक परिवार में पिता का देहांत हो चुका था तो दूसरे में माँ नहीं थी, लेकिन दोनों के एक-एक बेटा था। मोहन तब ग्यारह का होगा और प्रमोद दस का; दोनों की बहुत पक्की दोस्ती थी।
दोस्ती तो मोहन की माँ से, प्रमोद के बाबा की भी अच्छी थी, लेकिन समाज को दिखाने के लिए वो अक्सर यही कहते थे कि अकेली औरत का इकलौता बेटा है तो उसकी मदद कर देते हैं। ऐसे तो मोहन के घर के सारे बाहरी काम प्रमोद के बाबा ही करते थे; चाहे वो किराने का सामान लाने की बात हो या फिर खेती-बाड़ी के काम; लेकिन दुनिया को दिखाने के लिए मोहन को हमेशा साथ रखना होता था।
मोहन की माँ भी अपने लायक सारे काम कर दिया करती थी, जैसे कि प्रमोद और उसके बाबा के लिए खाना बनाना, कपड़े धोना और उनके घर की साफ़-सफाई। लेकिन ये शायद ही किसी को पता था कि वो केवल घर की साफ़-सफाई में ही नहीं बल्कि चुदाई में भी पूरा साथ देती थी। सच कहें तो इसमें कोई बुराई भी नहीं थी; दोनों अपने जीवनसाथी खो चुके थे, ऐसे में हर तरह से एक दूसरे का सहारा बन कर ज़िन्दगी काटना ही सही तरीका था।
मोहन को अक्सर खेती-बाड़ी के काम के लिए खेत-खलिहान में रहना पड़ता था। नाम के लिए ही सही लेकिन इस वजह से वो पढ़ाई में काफी पिछड़ गया था। यूँ तो सारा काम प्रमोद के बाबा करवाते थे लेकिन मोहन उनके साथ घूम घूम कर दुनियादारी कुछ जल्दी ही सीख गया था। किताबों से ज़्यादा उसे खेती और राजनीति की समझ हो गई थी। वैसे भी उम्र में प्रमोद से थोड़ा बड़ा ही था तो स्कूल में उसके डर से प्रमोद की तरफ कोई नज़र उठा कर देख भी नहीं सकता था। प्रमोद भी पढ़ाई में मोहन की मदद कर दिया करता था।
जब भी मोहन को काम से और प्रमोद को पढ़ाई से फुर्सत मिलती तो दोनों साथ ही रहते थे। कभी अपने पहिये दौड़ाते हुए दूर खेतों में चले जाते तो कभी नदी किनारे जा कर चपटे पत्थरों को पानी पर टिप्पे खिलवाते। जब थक जाते तो कहीं अमराई में बैठ कर गप्पें लड़ते रहते। दोनों के बीच कभी कोई बात छिपी नहीं रह पाती थी। हर बात एक दूसरे को बता दिया करते थे। अब तक तो ये बातें बच्चों वाली ही हुआ करतीं थीं लेकिन अब दोनों किशोरावस्था की दहलीज़ पर खड़े थे; अब बहुत कुछ बदलने वाला था।
मोहन की माँ कामुक प्रवृत्ति की तो थी ही लकिन साथ में वो एक दबंग और बेपरवाह किस्म की औरत भी थी। मोहन के सामने ही कपड़े बदल लेना, या नहाने के बाद अपने उरोजों को ढके बिना ही मोहन के सामने से निकल जाना एक आम बात थी। वैसे मोहन ने कभी उसे कमर से नीचे नंगी नहीं देखा था और न ही उसकी इस स्वच्छंदता के पीछे अपने बेटे के लिए कोई वासना थी। उसकी काम-वासना की पूर्ति प्रमोद के बाबा से हो जाती थी। ये तो शायद उसे ऐसा कुछ लगता था शायद कि माँ के स्तन तो होते ही उसके बच्चे के लिए हैं तो उस से उन्हें क्या छिपाना।
मोहन बारह साल का होने को आ गया था लेकिन अब भी कभी कभी उसकी माँ उसे अपना दूध पिला दिया करती थी। दूध तो इस उम्र में क्या निकलेगा लेकिन ये दोनों के रिश्तों की नजदीकियों का एक मूर्त रूप था। वैसे तो ये माँ-बेटे के बीच का एक वात्सल्य-पूर्ण क्रिया-कलाप था, लेकिन आज कुछ बदलने वाला था। मोहन आज अपनी फसल बेच कर आया था। आ कर उसने सारे पैसे माँ को दिए फिर नहा धो कर खाना खाया, और फिर माँ-बेटा सोने चले गए। दोनों एक ही बिस्तर पर साथ ही सोते थे।
मोहन- माँ, तुझे पता है आज वो सेठ गल्ला कम भाव पे लेने का बोल रहा था। माँ- फिर? मोहन- फिर क्या! मैंने तो बोल दिया कि सेठ! हमरे बैल इत्ते नाजुक भी नैयें के दूसरी मंडी तक ना जा पाएंगे। फिर आ गओ लाइन पे। जित्ते कई थी उत्तेई दिए। माँ- अरे मेरा बेटा तो सयाना हो गया रे।
इसना कह कर माँ ने मोहन को चूम लिया और गए से लगा लिया। फिर दोनों पहले जैसे लेटे थे वैसे ही लेट कर सोने की कोशिश करने लगे। कुछ देर के सन्नाटे के बाद धीरे से माँ की आवाज़ आई- दुद्दू पियेगा? मोहन- हओ! माँ ने अपने ब्लाउज के नीचे के कुछ बटन खोले और अपन एक स्तन निकाल कर मोहन की तरफ़ आगे कर दिया। मोहन हमेशा की तरह एक हाथ से उसको सहारा दे कर चूचुक अपने मुँह में ले कर ऐसे चूसने लगा जैसे वो उसकी आज की मेहनत का इनाम हो।
लेकिन अब बचपन साथ छोड़ रहा था और समय के साथ माँ ने भी ऐसे आग्रह करना पहले कम और फिर धीरे धीरे बंद कर दिए। मोहन भी अपनी किसानी के काम में व्यस्त रहने लगा और उसके अन्दर से भी ये बच्चों वाली चाहतें ख़त्म होने लगीं थीं और अब उसकी अपनी उम्र के लोगों के साथ ज्यादा जमने लगी थी खास तौर पर प्रमोद के साथ। समय यूँ ही बीत गया और दोनों शादी लायक हो गए।
एक दिन प्रमोद मोहन को अपने साथ एक ऐसी जगह ले गया जहाँ से वे छुप छुप कर गाँव की लड़कियों को नहाते हुए देख सकते थे। उन लड़कियों के नग्न स्तनों को देख कर अचानक मोहन को अपना बचपन याद आ गया जब वो अपनी माँ का दूध पिया करता था। चूंकि उसने 10-12 साल की उम्र तक भी स्तनपान किया था, उसकी यादें अभी ताज़ा थीं।
उसी रात मोहन ने अपनी माँ को फिर दूध पिलाने को कहा। वैसे तो माँ को यह बड़ी अजीब बात लगी लेकिन उसके लिए तो मोहन अब भी बच्चा ही था तो उसने हाँ कह दिया। माँ ने पहले की तरह अपने ब्लाउज के नीचे के कुछ बटन खोले और अपना एक स्तन निकाल कर मोहन की तरफ़ आगे कर दिया। लेकिन आज उसे चूसने से ज़्यादा मज़ा छूने में आ रहा था। उसकी उँगलियाँ अपने आप उस स्तन को सहलाने लगीं जैसे की सितार बजाया जा रहा हो। लेकिन सितार एक हाथ से कैसे बजता। मोहन का दूसरा हाथ अपने आप ब्लाउज के अंदर सरक गया और उसने अपनी माँ का दूसरा स्तन पूरी तरह अपनी हथेली में भर लिया।
एक स्तन आधा और एक पूरा उसके हाथ में था और वो दोनों को सहला रहा था। आज उसे कुछ अलग ही अनुभूति हो रही थी। धीरे धीरे सहलाना, मसलने में बदल गया। और तभी मोहन ने महसूस किया कि उसका लंड कड़क हो गया है। यूँ तो उसने पहले भी कई बार सुबह सुबह नींद में ऐसा महसूस किया था लेकिन अभी ये जो हो रहा था उसका कोई तो सम्बन्ध था उसकी माँ के स्तनों के साथ। उसकी बाल बुद्धि में यह बात स्पष्ट नहीं हो पा रही थी कि ऐसा क्यों हो रहा है। इसी बेचैनी में वो चूसना छोड़ कर ज़ोर ज़ोर से स्तनों को मसलने लगा।
माँ- ऊँ…हूँ… बहुत पी लिया दूध… अब सो जा।
मोहन समझ गया कि माँ उसकी इस हरकत से खुश नहीं है। वैसे तो उसकी माँ वात्सल्य की मूर्ति थी लेकिन अगर गुस्सा हो जाए तो इकलौता बेटा होने का लिहाज़ नहीं करती थी। मोहन को पता था कि अब ये सब कोशिश करना खतरे से खाली नहीं है और उसने निश्चय किया कि अब वो ये सब माँ के साथ नहीं करेगा।
अगले दिन मोहन अपने इस नए अनुभव के बारे में प्रमोद को बताने के लिए बेचैन था। जैसे ही मौका मिला, प्रमोद को कहा- चल अमराई में चल कर बैठते हैं। दोनों अपनी हमेशा वाली आरामदायक जगह पर जा कर बैठे और मोहन ने प्रमोद को सारा किस्सा बताया की कैसे माँ के स्तन दबाने से उसका लंड कड़क हो गया था।
प्रमोद को विश्वास नहीं हुआ- क्या बात कर रहा है? ऐसा भी कोई होता है क्या! मैं नहीं मानता। मोहन- अरे मैं सच कह रहा हूँ। कैसे समझाऊं? अब तेरे सामने तो नहीं कर सकता न… प्रमोद- आंख बंद करके सोच उस टाइम कैसा लग रहा था। मोहन- एक काम कर मैं तेरे पुन्दे मसलता हूँ, आँखें बंद करके और सोचूंगा कि माँ के दुद्दू दबा रहा हूँ। प्रमोद- तू मेरे मज़े लेने के लिए बहाना तो नहीं मार रहा है ना? तू भी अपनी चड्डी उतार! मैं भी देखूंगा तेरा नुन्नू कैसे खड़ा होता है।
दोनों ने अपनी चड्डी उतार दी। प्रमोद, मोहन के बगल में थोड़ा आगे होकर खड़ा हो गया और पीछे मुड़ कर मोहन के मुरझाये लण्ड को देखने लगा। मोहन ने आँखें बंद कीं और प्रमोद के नितम्बों को सहलाते हुए कल रात वाली यादों में खो गया। थोड़ी ही देर में उसका लण्ड थोड़े थोड़े झटके लेने लगा।
प्रमोद- अरे ये तो उछल रहा है। कर-कर और अच्छे से याद कर!!
प्रमोद की बात ने मोहन की कल्पना में विघ्न डाल दिया था, लेकिन कल्पना कब किसी के वश में रही है। मोहन की कल्पना के घोड़े जो थोड़े सच्चाई की धरती पर आये तो एक नया मोड़ ले लिया और उसे लगा कि जैसे वो अपनी माँ के नितम्ब सहला रहा है। इतना मन में आते ही टन्न से उसका लण्ड खड़ा हो गया।
प्रमोद- अरे! ये तो सच में खड़ा हो गया!! मोहन ने भी आँखें खोल लीं। मोहन- तू तो मान ही नहीं रहा था! प्रमोद- छू के देखूं? मोहन- देख ले! अब मैंने भी तो तेरे पुन्दे छुए हैं तो तुझे क्या मना करूँ।
प्रमोद ने अपनी दो उंगलियों और अंगूठे के बीच उस छोटे से लण्ड को पकड़ कर देखा, थोड़ा दबाया थोड़ा सहलाया।
मोहन- और कर यार! मज़ा आ रहा है। प्रमोद- ऐसे? मोहन- हाँ… नहीं-नहीं ऐसे नहीं… हाँ… बस ऐसे ही करता रह… बड़ा मज़ा आ रहा है याऽऽऽर!
इस तरह धीरे धीरे दोनों यार जल्दी ही अपने आप सीख गए कि लण्ड को कैसे मुठियाते हैं। ये पहली बार था तो मोहन को ज़्यादा समय नहीं लगा। वो प्रमोद के हाथ में ही झड़ गया।
मोहन- ओह्ह… आह…! प्रमोद- अबे, ये क्या है? पेशाब तो नहीं है… सफ़ेद, चिपचिपा सा? मोहन- पता नहीं यार लेकिन जब निकला तो एक करंट जैसा लगा था। मज़ा आ गया लेकिन मस्त वाला। प्रमोद- सफ़ेद करंट! हे हे हे… चल तुझे इतना मज़ा आया तो मुझे भी कर ना। मोहन- लेकिन तेरा तो खड़ा नहीं है?
भले ही दोनों जवान हो चुके थे, 18 पार कर चुके थे लेकिन मासूमियत अभी साथ छोड़ कर गई नहीं थी। वक़्त धीरे धीरे सब सिखा देता है। धीरे धीरे दोनों दोस्त अपने इस नए खेल में लग गए थे। उन्होंने लण्ड को खड़ा करना, मुठियाना और तो और चूसना भी सीख लिया। लेकिन दोनों में से कोई भी समलैंगिक नहीं था। उनकी कल्पना की उड़ान हमेशा मोहन की माँ के चारों और ही घूमती रहती थी।
इसी बीच एक रात मोहन ने अपनी माँ को बिस्तर से उठ कर जाते हुए देखा। थोड़ी देर बाद जब उसने छिप कर दूसरे कमरे में देखा तो उसकी माँ प्रमोद के पापा से चुदवा रही थी। इस बात से तो मोहन-प्रमोद की दोस्ती और गहरी हो गई। दोनों अपने माँ बाप की चुदाई की बातें कर-कर के एक दूसरे का लण्ड मुठियाते तो कभी पूरे नंगे हो कर एक साथ एक दूसरे का लण्ड चूसते और साथ-साथ एक दूसरे के बदन को सहलाते भी जाते।
कभी कभी तो जब मौका मिलता तो दोनों छिप कर अपने माँ-बाप की चुदाई देखते हुए एक दूसरे की मुठ मार लेते। लेकिन दोनों की इस लंगोटिया यारी में एक बड़ा मोड़ तब आया जब मोहन के लिए शादी का रिश्ता आया।
दोस्तो, मेरी कहानी आपको कैसी लग रही है, बताने के लिए मुझे यहाँ मेल कर सकते हैं [email protected] आपके प्रोत्साहन से मुझे लिखने की प्रेरणा मिलती है।
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